Tuesday, December 16, 2014

'मौत' कितनी सस्ती ! 

ये जमीन तेरी 
और ये मेरी
पर हम दोनों रहेंगे , कहीं और
हाँ, अपने-अपने घरों में 
बैठकर बनानी होगी योजना 
एक-दूसरे की मिल्क़ियत पर 
कब्ज़ा करने की !

'गहन सोच' का विषय !
कौन किस पर कब 
और कैसे करेगा प्रहार 
लाने होंगे, गोले-बारूद, बम 
सभी अत्याधुनिक हथियार 
मैं जागूँगा कई रातें 
तुझे उड़ाने के लिए 
पर मुझे भी रहना होगा होशियार !

उनके अपने क़ायदे-क़ानून 
इनकी अपनी शर्तें 
इन्हें उनका तरीका नामंज़ूर 
उन्हें इनसे ऐतराज़ 
चला रहे अंधाधुंध गोलियाँ 
वहशी, दरिंदे, इंसानों के भेस में 
क्या जीतना है ?
किसका सच ? 
किसके लिए ?
फायदा किसे ?
नुकसान किसका ?

सरकारें परेशान, लोग हैरान 
अचानक बढ़ा दी गई 
सीमा पर चौकसी 
'बड़े' लोगों की सुरक्षा में 
हुई और बढ़ोतरी 
सब निश्चिन्त, सुरक्षित 
अपने प्रायोजित तंत्रों के  खोल में !

और दूर कहीं से आतीं 
ह्रदय-विदारक चीखें 
सुना तुमनें आर्तनाद ?  
इंसानी जद्दोज़हद से अनजान,
निर्दोष, मासूम बचपन 
अभी ज़ख़्मी हुआ 
गिड़गिड़ाता रहा बिलखकर 
और फिर निढाल हो ,
सो गया 
चुनिंदा, बेबस,लाशों की शक़्ल में !

* 'मौत' तुम कितनी सस्ती हो चुकी हो !
  लगता है अब तुम भी बिक चुकी हो ! 

- प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, November 6, 2014

सुबह... हुई है अभी!

एक सुबह हुई है अभी
रात की गुमसुम कलियाँ
खिलखिला रहीं बेवजह
चाँद भी बत्ती बुझा
सो गया पाँव पसारे
अठखेलियाँ करते थक चुके
टिमटिमाते सारे तारे
नर्म घास के बिछौने पर
खुद ही लुढ़क गया
ठहरा हुआ आलसी मोती
शरमाती हुई हौले-से
झांकने लगी लालिमा
या कि आती रश्मियों को देख
लजा रहा आसमाँ !

सारी उदासियाँ भूल
किरणों की सलाई पर
बुनने बैठा कोई
टेढ़े-मेढ़े, बेतुक़े ख़्वाब
पक्षियों की महफ़िल
कतारबद्ध हो सजने लगी
घर की छतों और
उन्हीं चिर-परिचित तारों पर
मुंडेर पर इतराती, फुदकती
विचारमग्न वही बुद्धू गिलहरी
तितलियाँ हो रहीं फ़िदा
अपने ही रंगीन नज़ारों पर.

अलसाई-सी सारी खिड़कियाँ
खुलने लगे ताले
चहारदीवारी को फलांगकर
गिरा आज का अख़बार
कल की बासी खबरों का
था कहीं आदतन, अदना-सा इंतज़ार.
मासूम बचपन लद गया वैन में
आँखों को खंगालता
काँधे पर ढो रहा भविष्य
शुरू होने लगी सड़कों पर खटपट
मंदिरों से बुलाती ध्वनि-तरंगें
कोई हाथ दुआ को उठता हुआ
दूर चिमनियों से भागा धुँआ सरपट.

दो अजनबी चेहरे आज भी
मुस्काये होंगे दूर से
सेहत की चहलक़दमी तले,
एक दर्ज़न ठहाके
लग रहे होंगे, उसी पार्क में
दुनिया चाहे कितना भी जले
रात से बेसुध पड़ी ज़िंदगी की
टूटी तंद्रा, बिखरा स्वप्न
दुकान के खुलते शटर की तरह
खुलने लगी असलियतें
ओह, वक़्त नहीं !
आज भी जल्दी में हैं, सभी !
क्या फिर से कर दी भविष्यवाणी
उसी शास्त्र-व्यापारी ने
सृष्टि के आख़िरी दिन की ?
खैर...उठना ही होगा
चलना ही होगा
एक और सुबह.....
..........हुई है अभी !

- प्रीति 'अज्ञात'

चित्र - गूगल से साभार
mrwallpaper.com/Cycling-Sunrise-Art-wallpaper


Sunday, October 19, 2014

क्या किया तुमने ?

पहाड़ियों के पीछे
छिपता सूरज
रोज ही उतर जाता है 
चुपचाप उस तरफ
बाँटता नहीं कभी
दिन भर की थकान
नहीं लगाता, दी हुई
रोशनी का हिसाब
अलसुबह ही ज़िद्दी बच्चे-सा
आँख मलता हुआ
बिछ जाता है आँगन में
देने को, एक और सवेरा.

हवाओं ने भी कब जताया
अपने होने का हुनर
चुपचाप बिन कहे
क़रीब से गुजर जाती हैं
जानते हुए भी, कि
हमारी हर श्वांस,
कर्ज़दार है उनकी.

नहीं रूठीं, नदियाँ भी
हमसे कभी
बिन मुँह सिकोडे
रहीं गतिमान
समेटते हुए
हर अवशिष्ट, जीवन का.

साथ देना है तुम्हारा
तन्हाई में
यही सोच, चाँद भी तो
कहाँ सो पाता है
रात भर
देखो न, तारों संग मिल
चुपके से खींच ही लाता है,
'चाँदनी' की उजली चादर.

ये उष्णता, ये उमस
आग से जलती धरती
की है कभी, किसी ने शिकायत ?
उबलता हुआ खलबलाता जल, 
स्वत: ही उड़ जाता है, बादलों तक
और झरता है
शीतल नीर बनकर.
सृष्टि में ये सब होता ही रहा है
सदैव से, तुम्हारे लिए.

और तुम ?
क्या किया तुमने ?
उखाड़ते ही रहे न
हर, हरा-भरा वृक्ष
अड़चन समझकर.
चढ़ा दिया उसे अपनी
अतृप्त आकांक्षाओं
की बलिवेदी पर
और फिर गाढ दीं
उसी बंज़र ज़मीं में
अपनी अनगिनत, 
औंधी, नई अपेक्षाएँ !

- प्रीति 'अज्ञात'

तेरे लिए

कुछ शब्द बिखर रहे थे
हवाओं में आहिस्ता-से जैसे
हर श्वांस के साथ 
उतरते गये रूह में धीरे-धीरे,
एक आवाज़ बसती गई
हृदय में, धड़कन की तरह
चेहरे पर खिलखिलाती रही 
उन आँखों की रोशनी.
वो जो, एहसास-सा ख़्वाबों में
महकता था अक़्सर
न जाने ये 'तुम' थे
या मेरी दुआ का असर,
सूखे मन की भीगी माटी
देती गई, सौंधी-सी खुश्बू
जानती हूँ, वो मेरा होकर भी
मेरा होगा, नहीं कभी.
एक मौज़ूदगी का एहसास
एक हँसी मेरे लिए
न जाने ये 'प्रेम' है
या कुछ और, पर
काफ़ी है ये सामान 'ज़िंदगी'
जीना जो है मुझे, 
बस तेरे लिए ! 
- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, October 13, 2014

काश ! यूँ होता....या न होता ? :O

काश, मैं भी पुरुष होती !
खड़ी हो जाती लाइन में बेझिझक
पहचाने चेहरों को ढूँढे बगैर
शाम होते ही, पहुँच जाती
किसी गली के नुक्कड़ पे
हँसती जोरों से, बेमतलब ठहाके लगाती
चिल्लाकर पुकारती, अपने दोस्तों को
नि:संकोच, 'अबे, साले' कहकर.
घूरती हर आती-जाती लड़की को
और फिर कनखियों से, मैं भी मुस्कुराती.

जहर ही सही, पर चखती,
एक बार तेरी तरह
सिगरेट के कश, कभी मैं भी लगाती
चढ़ जाती दौड़कर, किसी भीड़ भरे डब्बे में
या मजबूरी में लटककर ही जाती
निकल जाती मुँह अंधेरे 
क्रिकेट का बल्ला उठाकर
और देर रात घर आती
न देनी पड़ती सफाई
न होती कभी पिटाई
न करता कोई चुगली मेरी
न बात-बात पे यूँ रो जाती!

न लेती अनुमति किसी की
जो जी में आए, करती-कराती
तू आए न आए, कौन जाने
मैं ही खुद, तुझसे मिलने आ जाती
काश, मैं पुरुष होती
तो इतनी बंदिशें, 
झूठी तोहमतों में बदलकर
दुनिया मुझ पर न लगा पाती
काश, मैं पुरुष होती
तो बेखौफ़ सबकी अकल ठिकाने लगाती
खुद से आसानी से यूँ
बार-बार ना हार जाती
...............................
पर फिर ये भी तो होता न, कि :P
उलझ जाती मैं
गृहस्थी के जंजाल में
बीवी के बवाल में
दुनिया के मायाजाल में
ज़िम्मेदारियाँ और लोगों के ताने
कर देते जीना मुश्किल मेरा
और हँसना पड़ता मुझे हर हाल में
लो फँस गये न, हम खुद
अपने ही फेंके, इस घटिया से जाल में !
उफ्फ, अब 'तनाव' दूर करने के लिए
करनी पड़ेगी शॉपिंग, जल्दी से भागकर
सिनेमाघर के नज़दीक वाले 
अपने उसी पसंदीदा 'मॉल' में ! :D

- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, October 6, 2014

'ज़िंदगी' भर 'ज़िंदगी' को, आज़माते रहे 
'ज़िंदगी' भर 'ज़िंदगी' से, मात ही खाते रहे. 

हादसे कितने भी झेले, उफ़ न की दिल ने कभी 
ये भी सच है चुपके से, हर ज़ख़्म सहलाते रहे. 

दुश्मनों की क्या ज़रूरत, दोस्त ही कुछ कम नहीं 
पिघलेंगे वो मोम बन के, खुद को समझाते रहे. 

झूठ और सच की है दुनिया, सच का दामन थाम के 
करके उनसे सच की उम्मीद, मन को भरमाते रहे.

गिर के उठे,खुद को संभाला, हौसला न चरमराया 
अश्क पलकों में सजे थे, लब मगर मुस्काते रहे. 

आरज़ू कितनी थी बाँटी, कितनों के दिल हमने जोड़े 
अपने ख्वाबों को खुरचकर, बस कसमसाते रहे. 

कश्ती सागर में थी डूबी, तैरने की ज़िद न छोड़ी 
टूटी इक पतवार थामे, गोते ही खाते रहे. 

क्यूँ नवाज़ेगा 'खुदा' अब, प्यार से इक 'दिल' भला
लेके इसको हाथ में जब, पत्थरों से टकराते रहे.

- प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, October 1, 2014

ज़िंदा हूँ कहीं....अब भी

मेरे हर सवाल का जवाब है वहाँ
कोसा जाता है, जी भर के मुझे
लगते हैं कई मनगढ़ंत आरोप
ठहराकर दोषी सरेआम
उड़ाई जाती है खिल्ली भी
दिया उलाहना हर अपेक्षा को
मारे वीभत्स ताने भी
सिसकती रहीं उम्मीदें
फिर शब्दों ने उडेली
सहानुभूति बटोरती संवेदनाएँ
कि मनुष्यता का हर भरम रहे बाकी !

अब चस्पा किया गया उन्हें
हर गली, नुक्कड़, चौराहे पर
खींचने को भीड़, भर दिए आकर्षक रंग भी
इन सबके बीच, बेझिझक नीलाम होता रहा 'प्रेम'
ढूंढता रहा अंत तक भौंचक्का हो
अपने ख़त्म होने के, आख़िरी निशाँ
कि जितनी बार भी पोंछना चाहा
खींच दी गई और भी लंबी लकीर
जिसके उस पार प्रवेश निषिद्ध था !

कहीं नहीं दिखी न मिल पाने की क़सक
कहीं नहीं था इंतज़ार का बहता आँसू
नहीं थी खुशी मेरे लिए एक पल को भी
खो गया था, हर वादा
गूँथी जा रही, नई पहेलियों के बीच
कसता गया शिकंजा
और टूटा एक कमजोर रिश्ता
पर फिर भी, नहीं गिला तुझसे
नहीं कोई शिक़ायत
हाँ, कहीं नहीं हूँ बाक़ी
पर तेरी हर धधकती कविता का
'विषय' तो हूँ !

- प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, September 25, 2014

वक़्त के साथ-साथ..

ये न कविता है, न कहानी है
वही मासूम ज़िंदगानी है
तुम हँसे थे देख, जिनको कभी
उन्हीं आँखों से गिरा पानी है.

तमाम उम्र जिसका इंतज़ार रहा
वो मिले भी तो, कभी कुछ न कहा
बदलते दौर संग बदलते रहे
रिश्ते हैं या मौसम की ये रवानी है.

वक़्त के दरिया संग बहते रहो
न करो उफ़ भी, ज़ख़्म सहते रहो
कल यहाँ थी, अब दिखेगी कहीं
ये मोहब्बत भी आनी-जानी है.

न गमगीन हो बैठो यूँ अभी
तुम्हारी मौत खुद आएगी कभी
न मानें हार जो हिम्मतवाले
इक कोशिश की फिर से ठानी है.

मतलबी दुनिया में ढूँढे किसको
न चली दिल की भी मनमानी है
दौरे-तूफ़ां में कोई थामेगा तुझे
तेरी ये सोच ही बचकानी है !
- प्रीति 'अज्ञात'
चित्र : गूगल से साभार !

Wednesday, September 24, 2014

उलझनें

वक़्त की तंग गलियों से निकल, 

फिर उसी दोराहे पर आकर खड़े हैं हम. 

जहाँ सच और झूठ की दीवारों पर 

विश्वास और अविश्वास की परछाईं है. 

ख़्वाबों को मुट्ठी में बाँधे हुए, 

जज़्बात की हालात से कैसी ये लड़ाई है? 

कभी बनती और कभी बिगड़ती-सी, 

आसमाँ पर बादलों की कितनी तस्वीरें ! 

कैसे खो-सी जाती हैं धुआँ होकर, 

जैसे ज़िंदगी से मेरी तक़दीरें !

आज फिर भीगी पलकें हैं, और दिल में 

वही ख़लिश-सी छाई है..... 

रुँधे गले से कंपकँपाते शब्द कहते आकर 

इस ज़ंग में भी तूने मात ही खाई है. 

वक़्त का जोर या बदक़िस्मती का शामियाना, 

अपनी तो हर हाल में रुसवाई है. 

साथ देने को तैयार खड़ी खामोश-सी ये 'ज़िंदगी' 

क्यूँ भला अब तक न हमें रास आई है !

- प्रीति 'अज्ञात'

Tuesday, September 16, 2014

शोर..?

सन्नाटे को रौंदती हुई
कुछ आवाज़ें
अपने ही कानों में पलटकर
शोर करतीं हैं
लाख पुकारो
चीखो-चिल्लाओ
घिसटते रहो, संग उनके
मनाओ, अनसुना हो जाने
का भीषण दु:ख
जो पास है, वही
कचोटता रहेगा
स्मृतियों की जुगाली बनकर !

उसका निष्ठुर मन

न जान सकेगा
'जो कहना था..
...बाक़ी ही रहा'
चलो, अलविदा
अब मथता रहेगा मन
उस असीम संभाव्य को
जिसकी तलाश में
बीता समय, मलता चला गया
धूल अपने ही चेहरे पर !

न सुना है, न सुन सकेगा

उम्मीद जो, हर रोज खोई
न शिकायत, न इंतज़ार
बस, वही कसक है बाकी
खैर... आसमाँ के उस पार से
चाहकर भी वापिस
कहाँ लौट सका है कोई !
- प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, September 14, 2014

मैं 'हिन्दी'

आज 'हिन्दी दिवस' पर, 'हिन्दी' खुद कैसा महसूस करती होगी, उसके अंतर्मन में झाँककर जानने की कोशिश की है -

मैं 'हिन्दी'
बस आज ही, चमक रही
'मृगनयनी-सी'
कभी बनी
'वैशाली की नगर वधू'
तो कभी
'चंद्रकान्ता'
हो 'मधुशाला'
बहकी भी
खूब लड़ी 'झाँसी की रानी'
'पारो' बन चहकी भी !

दिखी कभी राहों पर
'तोड़ती-पत्थर'
तो कभी
किसी 'पुष्प की अभिलाषा'
कहलाई
'नर हो न निराश करो मन को'
कह 'मैथिली' ने 
उम्मीद की अलख जलाई !

फिर क्यूँ बैठी हूँ
आज तिरस्कृत
'प्रेमचंद' की 'बूढ़ी काकी' बनकर
सिमटी हुई
अपने ही घर के
एक कोने में
कर रही इंतज़ार
कि कोई लेगा सुध
मेरी भी कभी
ठीक वैसे ही जैसे
'हामिद' आया था
'उस दिन'
'अमीना' का चिमटा लेकर !

पर 'हामिद' बन पाना
सबके बस की बात कहाँ
हर 'अहिल्या' को नहीं मिलता
अब कोई 'राम' यहाँ !
बात है 'आत्म-सम्मान' की
हाँ, अस्तित्व और स्वाभिमान की
खड़े होना होगा, स्वयं ही
सुना है....
'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती'
'बच्चन' ने भी गुना है
'किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अंधेरी रात पर, दीवा जलाना कब मना है'

'हिन्दी' का 'दिया', अब हर घर में जलाना होगा, 'मातृ-भाषा' को उसका खोया सम्मान दिलाना होगा, एक वादा करना होगा, केवल आज ही नहीं....बल्कि हर दिन अपनी 'राष्ट्र-भाषा' को अपनाना होगा ! अन्य भाषाओं का भी मान रहेगा पर 'हिन्दी' किसी से कमतर है, इस सोच को सबके दिलों से निकालना ही होगा ! आख़िरकार...."हिन्दी हैं हम, वतन है...हिंदोस्ताँ हमारा"......सारे जहाँ से अच्छा !
- प्रीति 'अज्ञात'

Tuesday, September 9, 2014

बीते वो पल.....

  
बीती हुई यादों का जमघट, 
अब भी हमारे साथ है. 
खोए, सारे पल वो अपने, 
बस दर्द का एहसास है.

अपनी ही मर्ज़ी से..., झूठे
रिश्तों को खारिज़ किया. 
आज आँसू बन वो निकले, 
हमको लावारिस किया. 

दोस्त कहने को बहुत से, 
पर साथ में कोई नहीं. 
अश्क़ अब बहते रगों में, 
आँख ये सोई नहीं. 

अपनी किस्मत के हैं मालिक, 
क्या है, जो ठोकर खाएँगे
तन्हा ही आए जहाँ में, 
तन्हा ही हम जाएँगे...!

- प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, July 19, 2014

भीड़.....

भीड़ अब व्यथित नहीं 
लज्जित भी नहीं
रोज ही औंधे मुँह
निर्वस्त्र पड़ी स्वतंत्रता भी
नहीं खींच पाती ध्यान
नहीं आता अब कलेजा मुँह को
उतारी जाती हैं, तस्वीरें
'प्रथम' होने की होड़ में
ब्रेकिंग न्यूज़ में बार-बार
दिखेगा हर कोण !

दुखद घटना जो हुई है
सो, आएँगी संवेदना भी
हर दल की, एक दूसरे पर
दोष मढ़ने की उत्सुकता लिए.
इधर लुटती रहेगी अस्मिता
चादर के अंतहीन इंतज़ार में
उधर बिछेगी दरिंदगी सड़कों पर.
सभ्यता और संस्कारों के
कई पुख़्ता सबूत मिलेंगे
उन जिस्मों से बहते लहू में !

होगी जाँच, आक्रोशित चर्चा
क़ानून के खिलाफ 
कुछ गुमनाम आवाज़ें उठेंगीं
निकलेगी रैली, होगा मौन,
शायद जलें मोमबत्तियाँ भी.
सारे तमाशों के बाद
वही खून से सना अख़बार
बिछेगा अलमारी में.

सुनाई देते रहेंगें 
अब और भी ऐसे
'आम' समाचार
'आम' जनता के
'आम' जनता के लिए,
बदबू मारती, वस्त्र-विहीन
बेहद घिनौनी मिलेगी,
एक और लहूलुहान लाश
हर रोज ही
अपने इस विकृत प्रजातंत्र की
अपने ही बने किसी चौराहे पर !

-प्रीति 'अज्ञात'

*.पर तुम विचलित न होना, ये तुम्हारा 'अपना' जो नहीं ! 'भीड़' का कोई नहीं होता, अपना चेहरा भी नहीं....यही 'ख़ास पहचान' है, इसकी ! 'आम' इंसान होना, क्या 'खास' ??

Thursday, July 10, 2014

प्रेम

प्रेम' होता नहीं
मिलता जाता है
जन्म लेते ही,
माता-पिता से
परिवार से, मित्रों से
शिक्षकों से
प्रेमी / प्रेमिका से
पति / पत्नी से
घर-बाहर, हर स्थान पर
उपलब्ध है 'प्रेम'
बिक भी जाता है कहीं
अभावों की मार से
अल्हड़, मासूम प्रेम.

हर रिश्ते में पूरी तरह
नहीं पाता ये स्वयं को
खो जाता है कहीं
अधूरा ही छूटा हुआ
हथेलियों से फिसलकर
निरीह, बेचैन प्रेम.
रह जाते हैं, महीन छिद्र,
उन्हीं सूराखों से रिसकर 
एक दिन घबराता-सा
व्याकुल हृदय से बाहर
निकल आता है प्रेम,
तलाशने को, इक और 'प्रेम'.

कहीं भ्रम, कहीं विवशता
कभी अचानक, कभी सोचा-समझा
कुकुरमुत्ते-सा, हल्की नमी पाते ही
उग आता है प्रेम.
सुंदर इठलाता हुआ
नवांकुर-सा, रूपांतरित हो
हरीतिमा से आच्छादित
मोगरे के फूलों-सा 
सुरमित कर वातावरण को
महक, बहक जाता है प्रेम.

फिर वही सर्व-विदित सत्य
समय की तीक्ष्ण धूप और
अपनी ही परछाईयों की शाम ओढ़े
यकायक, बिन कहे
कभी फफूंद-सा सड़ता,
बैठता मुरझाया हुआ
उदास, कुम्हलाकार
झुलस जाता है प्रेम.

मायूस हो सर झुकाए लौटता
उसी टूटे खंडहर में,
खुद से हारा हुआ
बदनाम, लाचार 'प्रेम'.
अब झाँकता है, उन्हीं
महीन छिद्रों से
जिन्होंनें कायान्तरित हो
भीतर-ही-भीतर
बुन ली भय की गहरी खाई
इसी अंधेरे कुँए में डूबकर
एक दिन अचानक ही
विलुप्त हो जाता है 'प्रेम' !

प्रीति 'अज्ञात'
Pic clicked by me :)

Friday, July 4, 2014

स्त्री-विमर्श...?

औरतें रोतीं, गातीं
बात-बेबात ठहाका लगातीं
कभी करती हैं, बुराइयाँ
दूसरी औरत की
और कितनी ही बातें
अनदेखी कर जातीं
'तुम बोलती बहुत हो'
सुनकर अक़्सर मौन हो
छुपा लेतीं हृदय की उथल-पुथल
स्वयं को थोड़ा व्यस्त दिखातीं !

हाँ, रोती है बेतहाशा, हर औरत
जब भी वो देखती, सुनती या पढ़ती
देह शोषण, मानसिक उत्पीड़न, दहेज
और बेशुमार अत्याचार की खबरें
तुम हंसकर उस पर लगाते हो
संवेदनशीलता का ठप्पा 
पर दरअसल कोशिश है ये
विषय बदलने की 
क्योंकि भय है तुम्हें
कहीं उसके अंदर की स्त्री
बग़ावत न कर बैठे....
और वो यही सोच लगाती है
हिचक़ियों के बीच अकस्मात
एक जोरदार ठहाका
अपने ही रोने पे,
कि तुम निश्चिंत हो जी सको !

बुराई करना, उसके असुरक्षित होने का
पहला प्रमाण ही सही
देखो लेकिन, कहीं तो है
कुछ टूटा हुआ-सा !
सच है, कि 'वो बोलती बहुत है'
तो फिर उसके भीतर की घुटन अब तक
क्यूँ न जान सके तुम ?
क्योंकि इतना बोलने के बाद भी
वो कभी कह ही नहीं पाई
कुछ ऐसा
जिसे तुम बर्दाश्त न कर सको !

कहने को बदला है समाज
बदल रही है, नारी की स्थिति
रोज दिखता है, हर नये चौराहे पर
चाय की चुस्की के साथ 'स्त्री-विमर्श'
पर हो सके तो कभी गुज़रना
इन 'परजीवियों' की गलियों से
गाँव ही नहीं, शहर भी जाना
महसूस करना नित नये गहने पहने
महँगी गाड़ियों में रौब मारती हुई
इन सक्षम औरतों की असमर्थता
जिन्हें मालूम है, कि
जब-जब हुआ, अस्तित्व के लिए संघर्ष
और उद्घोष किया गया स्वतंत्रता का
ठीक तभी ही, एक 'घर' टूटा है !!

* सब जानते-समझते हुए भी 'चुप है औरत' !

प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, July 2, 2014

बेवजह :P :D

'जीवन' लगभग एक सा ही है सबका, 
सुख-दुख भी आ ही धमकते हैं
बिन-बुलाए मेहमान-से
न तो सुख में दो रोटी अधिक
खाई जाती हैं
और न ही दुख से कोई
भूखों मरता है !
चलती है, जिंदगी अपनी ही गति से
थकान, परेशानी, बीमारी 
सब आते हैं बारी-बारी
बनते हैं, अवरोधक भी
पर मिलो गले सबसे
उसी उत्साह से !
और याद रखो अपनी ज़िम्मेदारियाँ 
जो न सिर्फ़ कारण
बल्कि उम्मीद भी देती हैं
पुन: उसी स्फूर्ति से
काम पे जुट जाने की
न जाने कितनी ही वजहें हैं
हर रोज जीने की
मुस्कुराने की
और बावरे-से इस
'मन' को धमकाने, समझाने की
समझे क्या ?
उम्मीद की किरण को
मारो गोली
'ज़िंदगी मिली ना
बहुत है, अब बस
चुपचाप से 'जी' जाने की ! :) :)

अब पोस्ट पढ़ ही रहे हैं, तो अंत में ये चीपो भी झेलना ही होगा -
सोच को शब्दों में ढालना आसान नहीं होता
हर 'सूरमा भोपाली' पहलवान नहीं होता ! :P :D
- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, June 30, 2014

बारिश - २

सुनते आए हैं सदियों से -
'जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं'
शांत जो कर लेते हैं, 
अपने हृदय की व्यथा चिल्ला-चिल्लाकर
तेज रोशनी में तमतमाकर
पर बंद हो जाते हैं, उनके भय से
सारे दरवाजे-खिड़कियाँ और रोशनदान भी !
लेकिन जो कह नहीं पाते
भरा करते हैं एक सहमी-सी हुल्कारी 
और काले घुप्प अंधेरे में, चुपचाप ही
बरस पड़ते हैं, कभी धीमी बारिश बन 
तो कभी मूसलाधार, 
फिर भी रखते हैं साथ उम्र-भर, 
उम्मीद की इक खुली खिड़की !

प्रीति 'अज्ञात'

बारिश - १

आज आसमाँ का आँचल गीला क्यूँ है
लग रहा है जैसे रोई हो रात
चाँदनी के बिन बिलख-बिलख
तभी तो स्याह हुआ रंग इसका
फैला हुआ काजल, और सूजी आँखें
सुबह से पसर गईं, रोशनी के आगे
लोग इन्हें काली घटायें कहें तो कहें
अंजान हैं, कि हर बरसता बादल
सुनाता है, नित नई कहानी
उमस, घुटन और संघर्ष की 
जो कभी घबराकर और कभी भरभराकर
बादलों से अनायास ही रिस पड़ती है.

प्रीति 'अज्ञात'

Friday, June 27, 2014

बुरबक !

'जीवन' एक सच
या 'मृत्यु' ही वास्तविकता ?
कितने स्वप्न देख लिया करता है 
ये पागल मन
एक ही जनम में
और फिर रोया करता है हरदम
बुक्का फाड़ के
झुंझलाता है, सर पीट-पीटकर
और बाकी वक़्त गुज़ार देता है
उनके पूरे न होने के मलाल में.

क्यूँ न मान ही लिया जाए
ये सर्वविदित कथन
'जो अपना है वो अपना ही रहेगा
और जो न हो सका, वो अपना था ही नहीं'
आँसू टपका-टपकाकर रोने से क्या फायदा
किसके पास है इतना फालतू वक़्त
कि आकर संभाले तुम्हें
और पोंछ डाले सारे आँसू
तुम नादां तो नहीं !
फिर काहे का तमाशा और
काहे की ज़िंदगी,
बुरबक !

चलो, बहुत हुआ
अब मुँह धो लो
मुस्कुराओ, यही बिकता है
दुनिया के बाज़ार में
खाँमखाँ ढूँढते हो मंज़िलें
एक पूर्व-निर्धारित लक्ष्य की
आह ! मृत्यु ही तो अंतिम पड़ाव है
हर जीवन का
तुम बुनते रहो
गुनते रहो
चाहे अनगिनत सपने
जल जाएँगे सब
भकभका के
एक साथ ही
हाँ, तुम्हारे ही इस
नश्वर शरीर के साथ !

- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, June 16, 2014

एक टुकड़ा ज़िंदगी...

एक टुकड़ा ज़िंदगी
अपनों से ही
होती रही भ्रमित
खोती रही
जीवन के मायने.
बदलते चले गये
श्वासों के अर्थ
ग़लत हुआ हर गणित.
शब्दों के पीछे छुपा मर्म
कोसता रहा अपने होने को
कौन पढ़ पाया
अहसासों और हृदय के
उस एकाकी कोने को ?

सबने चुन लीं
अपने-अपने हिस्से
की खुशियाँ
मुट्ठी भर मुस्कानें
समेटीं दोनों हाथों से
भरी रिक्तता स्वयं की
संवार ली अपनी दुनिया.

दर्द, आँसू सर झुकाए
अब भी तिरस्कृत
शून्य के चारों तरफ
निराश, हताश भटकते.
बंज़र ज़मीन पर
चीत्कारें भरता मन
सुन रहा है अट्टहास
बदली हुई दृष्टियों का
भिक्षुक बना प्रेम
स्मृतियाँ बनीं सौत
एक टुकड़ा ज़िंदगी
पल-पल बरसती मौत !

प्रीति 'अज्ञात'

ठूंठ

यादों की टहनियों पर
नन्ही-सी कुछ कोंपलें
कैसे पनप उठीं थीं
ठंडी हवा की गोद में
सर रखे, पीती हुईं नमीं
पाया नव-जीवन
उस स्नेहिल स्पर्श से
जैसे थक गईं हों
उस भूरे चोले के अंदर
तभी तो खिलखिलाकर
खोल दीं सब खिड़कियाँ 
और झट-से सर निकाल
ताकने लगीं दुनिया.

कितना सुंदर था सब
वो पत्तों का हरा होना
पर्णहरित की संगत में
फूटे कितने अंकुर
निकलने लगीं उचककर
उम्मीदों की अनगिनत शाखाएँ
झूमी हर डाली
फूलों का खिलना अब तय जो था
पर ये किसका प्रकोप ?
कि बदला मौसम ने रुख़ 
बदल गई रंगत सारी
शुष्क हुईं शाखाएँ
मुरझा गईं वो कोंपलें
काँपने लगी हर डाली
कुम्हला गये सब पत्ते
न खिल सका इक भी पुष्प.

उष्णता ने सोख लिया सब कुछ
लील ली नर्मी सारी
हर उदास शाम को
तन्हा दिखाई देता है
बस एक बूढ़ा ठूंठ
बेशर्मी से अब भी ज़मीन में
गढ़ा हुआ
न जाने किसके
इंतज़ार में...!

प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, June 15, 2014

'मैं' और 'तुम'

'मैं' और 'तुम'
'हम' न बन सके
घुलता ही रहा
ढलता चला गया
मेरा वजूद
'तुम' में
होती रही दूर
अपने-आप से
कि पा सकूँ खुद को
समझ ही न सकी
मेरे हर बढ़ते क़दम
तुम्हें और भी
पीछे ले जा रहे हैं
जहाँ से देख सकते हो 'तुम'
अनगिनत 'मैं'
पर मुझे अब भी दिखते हो
सिर्फ़ एक 'तुम'

ठिठककर चाहा मैंनें
क्यूँ न अब 'तुम' भी 
चलो थोड़ा, मेरी तरफ
बस यही ग़लती हुई मेरी
क्योंकि 'तुम' तो वहीं थे
बस देखा किए थे
मेरा बढ़ना
लेते गये परीक्षा
खींचते जा रहे थे
न जाने कितनी रेखाएँ
और मैं अबाध गति से
चली ही आ रही थी
बेझिझक, बेपरवाह-सी

सो, लेना ही पड़ा तुम्हें फ़ैसला
चैन से जीने का
देखो न, अब सब कुछ 
कितना सुंदर हो गया है
तुम्हारे जीवन में
कोई काली छाया
अब मंडराती ही नहीं
खुश हूँ, देखकर इस पुष्प के
आसपास उड़ने लगीं 
नये ख्वाबों की कुछ तितलियाँ 

और आज जहाँ 'मैं' हूँ
वहाँ से 'तुम' तो
कब के चले गये थे
'हम' होना यूँ भी 
मुमकिन न था
'तुम', 'तुम' ही रहे
और 'मैं' ख़त्म हो गई
तुम्हें पाने की ज़िद में
'तुममें' ही कहीं सिमटकर !

- प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, June 14, 2014

वैचित्र्य

रोज ही उठती है, 
प्रात:कालीन वचन के साथ
कि नहीं करेगी प्रतीक्षा
न अपेक्षा, न उम्मीद
जीएगी एकाकी ही, पहले-सा
हाँ, आश्वस्त भी करती है
अपने ही पागलपन को

फिर गुज़रते हैं, कुछ पल
घंटों में बदलते हुए
घड़ी की सुइयों की तरह ही
चलता है, मन-मस्तिष्क
पर इन सब ज़िम्मेदारियों
कर्त्तव्य और निर्वाह के बीच
बैचैन हो भटक रहा कोई
अचानक रौंदने लगता है
सुबह की प्रतिज्ञा
थम जाता है सब कुछ
यूँ हाथ तो अब भी
यन्त्रवत ही चला करते हैं.

मुस्कुराते चेहरे के पीछे
होती है उथल-पुथल
स्वप्न-सा कुछ तैरने लगता है
घबराकर थाम ही लेती है
उन्हीं धुंधली होती स्मृतियों का एक सिरा
कि श्वासों की गति अवरुद्ध न हो
उन्हें जीवित करने की ऊहापोह में
दौड़ती हुई अचानक
समय और फोन पर जैसे
बिठा आती हो आँखें.

पर धीरे-धीरे बैठता है हृदय ही
कुछ चिंता, उदासी और चिड़चिड़ापन
झलकता है माथे की लकीरों से
चाँद का आसमान में होना
अब उसे भाता ही नहीं 
जब देखो, सितारों से घिरा रहता है
निराश है अपने ही जीवन के वैचित्र्य से
कि रोज ही डूबा करती है सूरज संग
अनमनी-सी, कोसते हुए स्वयं को
और उसके उदय होते ही
फिर क्यूँ खिल उठती है !!

प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, June 12, 2014

इक और नदी....



एक जीवन अपने साथ बहुत कुछ बहा ले जाता है........

चुपचाप खड़ा हिमालय
सुन रहा आर्तनाद
गले लिपट बिलख रही 
टूटती उम्मीदों का
स्तब्ध है मौन
गूँज रहा सन्नाटा
छलनी हर हृदय.

अवाक आसमान, 
नि:शब्द हो सिसकता
सर झुकाए तलाश रहा
अपने ही प्रतिबिंब में 
डूबे हुए वो जीवन.
कुछ मन अब भी चीख रहे
अस्वीकृति में इस निर्मम सत्य की.
निर्जीव पाषाण से लिपटकर कहीं
इक लौ अब भी टिमटिमाती है.

पर ये नदी है कि
थमती ही नहीं 
बह रहे कितने निर्दोष सपने
धरती के गर्भ में
टूटा बाँध सब्र का
पीड़ा की परिधि के भीतर ही
उठेंगी सर्प-सी लहरें
सारी सीमाओं को लाँघकर
बढ़ता रहेगा व्यास
बहती रहेगी उम्र-भर
इक और नदी दर्द की !

- प्रीति 'अज्ञात'

Friday, June 6, 2014

प्रतिरोध

नहीं महसूस होता उसे कि
कहाँ ले जाया गया और कौन थे 
उस तन्हा सफ़र के साथी
कितनी उदासियाँ असली थीं
और कितने चेहरे आभासी
कितने आगंतुक परेशान थे
देरी की कथा सुनाकर
और कितने उठ गये बीच में ही
कार्य की व्यथा बताकर

नहीं समझ पाती वो आज भी, कि
उम्र भर बंधनों से बँधी रही जो
क्यूँ बाँधा गया है उसे और भी कसकर
क्यूँ न दिया अब तलक उसे किसी ने
उसका पसंदीदा वो लाल वाला फूल चुनकर
रंग भी देखो ओढ़ा दिया वही फीका-सा
जो कभी पहना था उसने सुबककर
ये कैसी विवशता है जाने ! कि
न सीखा तैरना, पर बह जाती है
घबराती थी लौ से जो, अब जल जाती है
सहमी गहरे अंधेरों से, गड्ढों में सहसा उतर जाती है

नही करती इस बार कोई भी सवाल-जवाब
और मौन हो स्वत: कूच कर जाती है
थक चुकी है वो इस जीवन-संघर्ष से
सो बँध गई पाषाण हो एक और बेड़ी समझ
पसंद-नापसंद पहले भी किसने पूछी उसकी ?
बह जाती हैं अपने ही आँसुओं की नदी में
जलती है भीतर के ज़िंदा सवालों की तरह
अंधेरा ज़रूर अपना-सा ही लगता होगा उसे
इसीलिए ही तो, हाँ इसीलिए ही 
'लाशें' कभी प्रतिरोध नहीं करतीं !

प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, May 14, 2014

तुम स्त्री हो... ?

बरसों से दबी हुई
रिवाजों के मलबे तले
समाज की बनाई, आग्नेय चट्टानों के बीच
पिसती गई परत-दर-परत
रिसता रहा लहू अपने ही
लहुलुहान वजूद से
झेलीं अनगिनत यातनाएँ भीं.
तमाम यंत्रणाओं और प्रताड़नाओं के बीच 
जब भी उठना चाहा
होता रहा, देह पर अतिक्रमण.

सुरक्षा के नाम पर हुई नज़रबंद
चलीं अविश्वास की अनगिनत आँधियाँ भी
जलाया अपनों की ही क्रोधाग्नि ने
रिश्तों को जीत लेने का
हर प्रयत्न अब असफल ही था
कि हर उठती कोशिश को
नियति का भीषण प्रहार भेद देता
तमाम झंझावातों के बीच
आख़िर कुचल गयी आत्मा भी
धंसता गया, तन-मन
उन्हीं दो पाटों के बीच.

समय ने और भी गहरा दिए
गर्त के बादल
धूल-धूसरित शरीर अब
खिलता नहीं पहले सा
'मौन' ही बन गया पहचान उसकी
शायद ये प्रायश्चित है
उसके 'होने' का
लेकिन डर है...
कहीं उसे इंतज़ार तो नहीं
कि कोई आकर ढूँढ निकालेगा उसे
उत्खनन में
फिर पा लेगी वो एक नया नाम
हृदय थोड़ा अचंभित और द्रवित हो
चीत्कार ही उठा सहसा
तुम 'स्त्री' हो या 'जीवाश्म'..... ??

प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, May 10, 2014

चलो तब ही सही.......


न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............!

तू नही अजनबी वहाँ होगा
देख तुझको, सारे पंछी चहचहाएँगे
झुकेगी फूलों से लदी हुई हरेक डाली 
पुष्प शरमाएँगे फिर खुद ही बिखर जाएँगे
करेंगी स्वागत तेरा बाग़ की सब तितलियाँ
ओस के पत्तों में, आँखों की नमी पाओगे.
न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............

खोलना लकड़ी की पुरानी-सी अलमारी को
मिलेगी उसमें छुपी इक वहाँ तस्वीर तेरी
उकेरी थी बहुत सी यादें मगर
उन्हीं में ख़ास ये अमानत है मेरी 
फिर सुनना बैठकर खामोशी को
संग अपना ही गीत गुनगुनाओगे
न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............!

बैठ सोफे पे पढ़ना फिर वहीं वो डायरी भी
मिलेगा पन्नों में सहमा हुआ सा इक ही ख़्वाब
जो हो सके तो फिर समझ जाना
तेरे हर सवाल का लिखा है, वहीं पर ही जवाब
पलटकर देखना अब पीछे की दीवार पर तुम
मेरी तस्वीर में हंसता मुझे तुम पाओगे
न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............!

यूँ कहने को तो है अभी भी बसा घर ये मेरा
हरेक शै में है पिघला हुआ बस अक़्स तेरा
न दिखूँगी तुझे पर तू उदास ना होना
मेरी यादों को जीना, साथ उनके मत रोना
निहारोगे जब सोचते से, खुद को दर्पण में
मैं मुस्काऊँगी वहाँ और तुम ही चौंक जाओगे.
न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............!

बसे हो बन के ज़िंदगी घर की
हाँ, तुम्हीं तो हो जान मेरे इस चमन की
जिसे हो ढूँढते-फिरते, जुदा हुई  ही नहीं
तेरी इन धड़कनों के संग अभी तक है वहीं
जो तलाशोगे उसे यूँ बेतरहा
हर जगह खुद से ही टकराओगे
न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............!

प्रीति 'अज्ञात'