औरतें रोतीं, गातीं
बात-बेबात ठहाका लगातीं
कभी करती हैं, बुराइयाँ
दूसरी औरत की
और कितनी ही बातें
अनदेखी कर जातीं
'तुम बोलती बहुत हो'
सुनकर अक़्सर मौन हो
छुपा लेतीं हृदय की उथल-पुथल
स्वयं को थोड़ा व्यस्त दिखातीं !
हाँ, रोती है बेतहाशा, हर औरत
जब भी वो देखती, सुनती या पढ़ती
देह शोषण, मानसिक उत्पीड़न, दहेज
और बेशुमार अत्याचार की खबरें
तुम हंसकर उस पर लगाते हो
संवेदनशीलता का ठप्पा
पर दरअसल कोशिश है ये
विषय बदलने की
क्योंकि भय है तुम्हें
कहीं उसके अंदर की स्त्री
बग़ावत न कर बैठे....
और वो यही सोच लगाती है
हिचक़ियों के बीच अकस्मात
एक जोरदार ठहाका
अपने ही रोने पे,
कि तुम निश्चिंत हो जी सको !
बुराई करना, उसके असुरक्षित होने का
पहला प्रमाण ही सही
देखो लेकिन, कहीं तो है
कुछ टूटा हुआ-सा !
सच है, कि 'वो बोलती बहुत है'
तो फिर उसके भीतर की घुटन अब तक
क्यूँ न जान सके तुम ?
क्योंकि इतना बोलने के बाद भी
वो कभी कह ही नहीं पाई
कुछ ऐसा
जिसे तुम बर्दाश्त न कर सको !
कहने को बदला है समाज
बदल रही है, नारी की स्थिति
रोज दिखता है, हर नये चौराहे पर
चाय की चुस्की के साथ 'स्त्री-विमर्श'
पर हो सके तो कभी गुज़रना
इन 'परजीवियों' की गलियों से
गाँव ही नहीं, शहर भी जाना
महसूस करना नित नये गहने पहने
महँगी गाड़ियों में रौब मारती हुई
इन सक्षम औरतों की असमर्थता
जिन्हें मालूम है, कि
जब-जब हुआ, अस्तित्व के लिए संघर्ष
और उद्घोष किया गया स्वतंत्रता का
ठीक तभी ही, एक 'घर' टूटा है !!
* सब जानते-समझते हुए भी 'चुप है औरत' !
प्रीति 'अज्ञात'
बात-बेबात ठहाका लगातीं
कभी करती हैं, बुराइयाँ
दूसरी औरत की
और कितनी ही बातें
अनदेखी कर जातीं
'तुम बोलती बहुत हो'
सुनकर अक़्सर मौन हो
छुपा लेतीं हृदय की उथल-पुथल
स्वयं को थोड़ा व्यस्त दिखातीं !
हाँ, रोती है बेतहाशा, हर औरत
जब भी वो देखती, सुनती या पढ़ती
देह शोषण, मानसिक उत्पीड़न, दहेज
और बेशुमार अत्याचार की खबरें
तुम हंसकर उस पर लगाते हो
संवेदनशीलता का ठप्पा
पर दरअसल कोशिश है ये
विषय बदलने की
क्योंकि भय है तुम्हें
कहीं उसके अंदर की स्त्री
बग़ावत न कर बैठे....
और वो यही सोच लगाती है
हिचक़ियों के बीच अकस्मात
एक जोरदार ठहाका
अपने ही रोने पे,
कि तुम निश्चिंत हो जी सको !
बुराई करना, उसके असुरक्षित होने का
पहला प्रमाण ही सही
देखो लेकिन, कहीं तो है
कुछ टूटा हुआ-सा !
सच है, कि 'वो बोलती बहुत है'
तो फिर उसके भीतर की घुटन अब तक
क्यूँ न जान सके तुम ?
क्योंकि इतना बोलने के बाद भी
वो कभी कह ही नहीं पाई
कुछ ऐसा
जिसे तुम बर्दाश्त न कर सको !
कहने को बदला है समाज
बदल रही है, नारी की स्थिति
रोज दिखता है, हर नये चौराहे पर
चाय की चुस्की के साथ 'स्त्री-विमर्श'
पर हो सके तो कभी गुज़रना
इन 'परजीवियों' की गलियों से
गाँव ही नहीं, शहर भी जाना
महसूस करना नित नये गहने पहने
महँगी गाड़ियों में रौब मारती हुई
इन सक्षम औरतों की असमर्थता
जिन्हें मालूम है, कि
जब-जब हुआ, अस्तित्व के लिए संघर्ष
और उद्घोष किया गया स्वतंत्रता का
ठीक तभी ही, एक 'घर' टूटा है !!
* सब जानते-समझते हुए भी 'चुप है औरत' !
प्रीति 'अज्ञात'
विमर्श के तौर-तरीके बस यूँ ही बदलते है ....सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद, कौशल जी !
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteशुक्रिया, सुमन जी !
Deleteबहुत ही सुंदर , प्रीती जी धन्यवाद !
ReplyDeleteInformation and solutions in Hindi ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
आपका बहुत-बहुत आभार !
Deleteब्लॉग बुलेटिन आज की बुलेटिन, स्वामी विवेकानंद जी की ११२ वीं पुण्यतिथि , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteशुक्रिया आपका :)
Deleteआपकी इस रचना का लिंक शनिवार दिनांक ५ . ७ . २०१४ को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर होगा , धन्यवाद !
ReplyDeleteधन्यवाद, आशीष भाई !
Deleteगहन भावों को कुरेदती रचना -कटु सच्चाई को उकेरती
ReplyDeleteशुक्रिया, अरविंद जी !
Deleteप्रभावशाली एवं भावपूर्ण रचना...बधाई
ReplyDeleteधन्यवाद, हिमकर जी !
Deleteसुंदर अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबहुत -बहुत शुकिया, सुशील जी ! आपकी उपस्थिति प्रेरणादायक लगती है ! :)
Deleteसटीक अभिव्यक्ति ...बहुत कुछ भीतर सहेजती औरतें ....
ReplyDeleteजी , मोनिका जी ! बहुत कुछ :) शुक्रिया, आपका !
Deleteअनुभूतियों और भावनाओं का सुंदर समवेश इस खूबसूरत प्रस्तुति में
ReplyDeleteधन्यवाद, संजय जी !
Deleteबहुत ही संवेदनशील रचना ... नारी मन के भावों को पैनी नज़र से देखा है ...
ReplyDeleteआभार, दिगंबर जी !
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