Friday, January 20, 2017

ज़िंदगी की किताब हूँ

मसरूफ़ियत की नुमाइशें 
फिज़ूल सब फ़रमाइशें 
तक़दीर के हाथों मिले 
हर दर्द में बेहिसाब हूँ
ज़िंदगी की किताब हूँ.... 

कौन किससे कब मिले 
सबके अलग हैं सिलसिले 
नीयत छुपा ले ऐब सब 
वो मुस्कुराता हिजाब हूँ 
ज़िंदगी की किताब हूँ..... 

ये दौर ही कुछ और है 
गिरगिट यहाँ सिरमौर है
उम्र के माथे पर चढ़ती 
ख्वाहिशों की खिजाब हूँ 
ज़िंदगी की किताब हूँ.....

चाहे ग़म हो या ख़ुशी कहीं 
मैं सबसे खुलके गले मिली
सुर्ख़ हँसी की चादर तान के 
ओढ़ी गई नक़ाब हूँ
ज़िंदगी की किताब हूँ.....
--प्रीति 'अज्ञात'

सभ्यता के नाम पर

मैं गले में फांस की तरह
अटका कोई शब्द हूँ
कैमरे के हर कोण से झांकती 
शेष हड्डी भी हो सकती हूँ, किसी की 
निरर्थक, अवांछित
पर फिर भी भुनाया जा सकता है जिसे!  

हूँ अपने ही घूर्णन से
नियमित दिन-रात बदलती
थकी-हारी धरा  
जिसका एक सूत भी
बहक जाना 
भीषण प्रलय का आह्वान होगा

मैं सभ्यता के अंतिम दौर की 
आखिरी पीढ़ी की 
दम तोड़ती उम्मीद हूँ
हौसलों को पुनर्जीवित करने में 
पराजित, निढाल, एकल श्वांस हूँ 
हाँ, मैंनें स्वीकार किया 
कि अच्छाई की समाप्ति 
बुराई के सतत प्रयासों का 
मिश्रित परिणाम है 
मैं आधुनिक से
आदि मानव बनने की प्रक्रिया का
निरीह प्रारंभिक काल हूँ
-प्रीति 'अज्ञात'