Friday, November 20, 2015

बाहर होती हूँ जब अपने-आप से...

बाहर होती हूँ जब 
अपने-आप से 
तब होकर भी मैं वो नहीं होती 
जो चाहती हूँ होना 
या जो देखना चाहती है
दुनिया 
मुझे होते हुए 
सवाल यह भी
कि जवाब की जिम्मेदारी
हर बार
मुझ पर ही क्यों?

कौन बदला है कभी मेरे लिए?
कौन मेरे बदलने पर 
रह सका है, पहले-सा?
कौन मुस्कुराया है 
मेरी हंसी से?
मेरी नम आँखों ने 
किसका मन भिगोया है?

जब करना है कटाक्ष 
तो करो मेरे 
जीवन स्वरुप  पर 
जो है मेरा बिल्कुल अपना
मेरी सोच, मेरा स्नेह,
मेरी आशा, मेरा विश्वास 
परिस्थितियों के 
गिरगिट के 
बेबस ग़ुलाम नहीं

मैं अब अपने-आप में हूँ
यही रहूंगी 
हाँ, ठीक वैसी ही 
जो मैं स्वयं होना चाहती हूँ
या कि थी पहले से ही 
- प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, November 8, 2015

स्वप्न या....?

एक घना जंगल 
यहाँ जानवरों की आवाजाही 
पूर्णत: वैध है 
चोरी से परखते
नापते-तौलते 
घात लगाते पशु 
अचानक टूट पड़ते हैं 
अपने-अपने शिकार पर 
लेते हैं आनंद
लहू से लिपटे उस 
माँस के लोथड़े और
निरीह चीखों का 

दिखाई देते हैं 
इस दृश्य से सहमे 
पेड़ पर चढ़े हुए
टहनियों से लटके 
झाड़ियों में दुबके 
कुछ छोटे जीव-जंतु

सुनाई देती है 
बीच में कहीं-कहीं 
सियारों के हूकने की आवाज
जो हर पलटती गुर्राहट के साथ 
डूबती चली जाती है 

आँख खुलती है 
मैं खुद को 
अपने देश में पाती हूँ!
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic : Google