Tuesday, December 29, 2015

कितने जीवन??

कितने जीवन तुमको मिले हैं
इक अपने जीने के लिए?

तुम जल रहे या जला रहे  
अपनों को जिस बात पे 
ख़ुद को ही तो छल रहे न 
ज़ख्म सीने के लिए 

मौत भी है ज़िंदगी-सी 
ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाएगी 
इस वक़्त को दुआएं दे 
दो घूँट पीने के लिए 

ग़म की कमी खलती नहीं 
इक याद बस मिलती नहीं 
नम मोतियों की माला बिंधती 
दिल के नगीने के लिए

कोई दर्द समझे कब हुआ है 
रिश्ते उड़ता-सा धुंआ है 
बादलों में ढूंढ लो पल 
अंतिम महीने के लिए 

कितने जीवन तुमको मिले हैं
इक अपने जीने के लिए?
- प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, December 20, 2015

आश्चर्य में हो तुम?

मूर्खता की पराकाष्ठा
या विशुद्ध भ्रम 
कि आँखों पर बंधी पट्टी देख 
कोस रहे हो व्यवस्था को  
ये अद्भुत 'व्यवस्था' अंधी नहीं 
बल्कि एक क्रूर- सुनियोजित 
षणयंत्र है उस अंतर्दृष्टि का 
जो महलों में निर्भीक विचरते 
संपोलों के भविष्य की सुरक्षा को
मद्देनज़र रख 
सदियों से रही आशंकित 
वही संपोले जिनके जन्मदाता ने 
दे रखा उन्हें आश्वासन 
उनके हर जघन्य कृत्य को 
बचपने की पोटली में  
लपेट देने का

'वो'  हैं आज भी उतने ही 
निडर, बेलगाम, सुरक्षित
हमेशा की तरह 
शोषण करने को मुक्त 
बालिग़ और नाबालिग़ 
हास्यास्पद शब्द भर रह गए 
जिनका एकमात्र प्रयोग
वोट डालने औ' घड़ियाली आँसू बहाने की 
सुविधा के अतिरिक्त 
और कुछ भी नहीं 
वरना हर वयस्क अपराधी 
क़ैद दिखता सलाख़ों के पीछे 

दरअसल 'देव-तुल्य' हैं
कुछ मुखौटेधारी  
और विवश जनता को देना होता है 
अपनी आस्था और आस्तिकता का प्रमाण
कि सुरक्षित बने रहने की उम्मीद में
अब भी यहाँ 
'नाग-देवता' की पूजा होती है!
 © 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 
Pic: Google

Tuesday, December 8, 2015

निरर्थक है...!

निरर्थक है प्रमाणित सत्य को 
अस्वीकारते हुए  
करवट बदल सो जाना 
निरर्थक है भावों को 
शब्दों की माला पहनाते
आशंकित मन का 
मध्य मार्ग ही
उनका गला  घोंट देना 
निरर्थक है बार-बार धिक्कारे हुए 
इंसान का 
उसी चौखट पर मिन्नतें करना 
निरर्थक है फेरी हुई आँखों से 
स्नेह की उम्मीद 
निरर्थक है बीच राह पलटकर 
प्रारम्भ को फिर पा जाना
हाँ, सचमुच निरर्थक ही है
ह्रदय का मस्तिष्क से 
अनजान बन जाने का हर आग्रह

ग़र समेटनी हों 
हर बिखरती स्मृति 
टूटते स्वप्नों के साथ 
विदा ही प्रत्युत्तर हो 
हर मोड़ पर खड़े चेहरों  का
और समझौता ही बनता रहे 
गतिमान जीवन का एकमात्र पर्याय
तो फिर सार्थक क्या?
ये जीवन भी तो 
जिया यूँ ही …
निरर्थक! 
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic. Credit: Google

Sunday, December 6, 2015

"यादों के लेटर-बॉक्स में भीतर से कुण्डी नहीं होती.....!"

जो क़िताबें कह नहीं पातीं 
वो पाठ अनुभव सिखाता है 
जीवन की भूलभुलैया में 
कोई बैकग्राउंड स्कोर-सा
बजता  है पुराना संगीत
ज़िंदगी के पहाड़े अब 
उलटे ही चला करते हैं
रंगहीन दुनिया में मुश्किल है 
जीवन का गणित समझ पाना
मुश्किल है पहचान अपनों की 
कि हर परिस्थिति में
बदले जाते हैं नियम 

चरमराहट की
खीजती आवाज के साथ 
खुलते हैं दिलों के
सुस्त दरवाजे
चेहरे पर 
बोझ की तरह 
लटकी हंसी
करती विवश अभिवादन 
पर चुगलखोर आँखों से 
झांक ही जाती असलियत 
कि इंतज़ार यहाँ 
था ही नहीं कभी 
सूना मन-आँगन
स्वीकारता नियति 
पर दुःख ज़िद्दी बच्चे-सा 
चला ही आता है
यादों की ऊंची मेड़ को 
फलाँगते हुए  

है विडंबना कैसी 
कि सब कुछ 
जानते-समझते हुए भी 
इंसान, उम्र-भर पलटता है
वही भीगे पन्ने
जिनकी एक्सपायरी डेट बीते 
बरसों बीत गए   
फिर भी न जाने क्यों 
यादों के लेटर-बॉक्स में 
भीतर से कुण्डी नहीं होती...... 
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित

Friday, November 20, 2015

बाहर होती हूँ जब अपने-आप से...

बाहर होती हूँ जब 
अपने-आप से 
तब होकर भी मैं वो नहीं होती 
जो चाहती हूँ होना 
या जो देखना चाहती है
दुनिया 
मुझे होते हुए 
सवाल यह भी
कि जवाब की जिम्मेदारी
हर बार
मुझ पर ही क्यों?

कौन बदला है कभी मेरे लिए?
कौन मेरे बदलने पर 
रह सका है, पहले-सा?
कौन मुस्कुराया है 
मेरी हंसी से?
मेरी नम आँखों ने 
किसका मन भिगोया है?

जब करना है कटाक्ष 
तो करो मेरे 
जीवन स्वरुप  पर 
जो है मेरा बिल्कुल अपना
मेरी सोच, मेरा स्नेह,
मेरी आशा, मेरा विश्वास 
परिस्थितियों के 
गिरगिट के 
बेबस ग़ुलाम नहीं

मैं अब अपने-आप में हूँ
यही रहूंगी 
हाँ, ठीक वैसी ही 
जो मैं स्वयं होना चाहती हूँ
या कि थी पहले से ही 
- प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, November 8, 2015

स्वप्न या....?

एक घना जंगल 
यहाँ जानवरों की आवाजाही 
पूर्णत: वैध है 
चोरी से परखते
नापते-तौलते 
घात लगाते पशु 
अचानक टूट पड़ते हैं 
अपने-अपने शिकार पर 
लेते हैं आनंद
लहू से लिपटे उस 
माँस के लोथड़े और
निरीह चीखों का 

दिखाई देते हैं 
इस दृश्य से सहमे 
पेड़ पर चढ़े हुए
टहनियों से लटके 
झाड़ियों में दुबके 
कुछ छोटे जीव-जंतु

सुनाई देती है 
बीच में कहीं-कहीं 
सियारों के हूकने की आवाज
जो हर पलटती गुर्राहट के साथ 
डूबती चली जाती है 

आँख खुलती है 
मैं खुद को 
अपने देश में पाती हूँ!
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic : Google

Tuesday, October 27, 2015

माँ कहतीं थीं.....

समय रहते माँ की सीख, समझ लेनी चाहिए! एक रचना, हर आयु की स्त्री को समर्पित -

माँ हरदम कहतीं 
दुनिया उतनी अच्छी नहीं 
जितनी तुम माने बैठी हो 
और मैं तुरत ही 
चार अच्छे दोस्तों के नाम 
गिना दिया करती

माँ ये भी समझातीं 
हरेक पे झट से विश्वास न करो 
जांचो-परखो, फिर आगे बढ़ो 
और मैं उन्हें शक्की मान  
रूठ जाया करती 

माँ आगे बतातीं 
आँखों की गंदगी पढ़ना 
किताबों में नहीं लिखा होता 
मैं फिर भी उन पन्नों में घुस 
बेफ़िज़ूल ख़्वाब सजाया करती

माँ थकने लगीं, ये कहते हुए 
तेरी चिंता है बेटा 
औ' जमाने का डर भी 
यूँ भी तुम्हारा बचपना जाता ही नहीं 
मैं जीभ निकाल, खी-खी 
हंस दिया करती
कि जाओ मैं बड़ी होऊंगी ही न कभी 

इन दिनों मैं 
हैराँ, परेशां भटकती 
अपने ही देश में 
अपनी बेटी का हाथ 
कस के थामे
देखती हूँ आतंक 
दीवारों की चीखों का
भयभीत हूँ 
इर्दगिर्द घूमते 
काले सायों से

दिखने लगे  
लाशों के ढेर पर बैठे 
सफेदपोश, मक्कार  चेहरे 
जिनके लिए है ये मात्र 'घटना'
खुद पर घटित न होने तक 
सुबक पढ़ती हूँ अचानक 
और मनाती हूँ मातम 
अपने 'होने' का 

माँ, तुम ठीक ही कहतीं थीं हमेशा 
सामान्य तौर पर 
यही तो सच है, इस समाज का 
तुमने 'दुनिया' देखी थी
और मैं अपवादों को 
अपनी 'सारी दुनिया' मान 
सीने से लगाए बैठी थी 

देखो न, अब मैं भी  
दोहराने लगीं हूँ यही सब 
अपनी ही बेटी के साथ
सीख गई हूँ बड़बड़ाना,
औ' हँसते-हँसते रो देना
समाचारों को देख
खीजती-चीखती भी हूँ  
पागलपन की हद तक!

माँ आजकल, कुछ नहीं कहतीं 
बस, उदास चेहरा लिए 
हैरानगी से देखतीं है मुझे!
- © 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित

Tuesday, October 20, 2015

'अंत भला तो सब भला'

सोचती हूँ
एक दिन, 
खुद ही, नोच लूँ 
बोटी-बोटी अपनी 
और भिजवा दूँ 
सारे चील-कौवों को 
पाऊँ मुक्ति 
स्त्री-देह के 
अभिशाप से 

 न मरूँगी रोज फिर 
उन गन्दी निगाहों से 
हर घिनौने स्पर्श का 
अब घोंट दूंगी  
मैं ही गला 
क्या विश्वास, 
कैसी मर्यादा 
हर राह यहाँ 
किसी ने 
अपना बन 
ही छला
 
हाँ, तुम जीत जाओगे 
अपने पौरुष के अभिमान से
करोगे चर्चा, अपने हुनर की
स्त्रियों के बेधड़क अपमान से 
ये दुनिया तुम्हारी 
तुमसे और भी
कितने हैं बाक़ी 
इधर एक अकेली स्त्री
जिसके, ज़िंदगी और मौत के 
क्या  हैं मानी
सुना है न 
'अंत भला तो सब भला'
- प्रीति 'अज्ञात'

** ये रचना आत्महत्या की प्रवृत्ति का समर्थन नहीं करती बल्कि उन पुरुषों के लिए एक 'सोच' पैदा करने की उम्मीद है. जो स्त्री (बच्ची को भी) को 'देह' के अतिरिक्त देख ही नहीं पाते. वे ये कैसे भूल जाते हैं कि उन्होंने एक स्त्री की कोख से ही जन्म लिया है, जिसे वो आज 'माँ' कहते हैं. एक बहिन भी होगी उन घरों में, पत्नी/प्रेमिका और बेटी भी हो सकती है. ये पैग़ाम आपकी 'माँ', आपकी 'पत्नी', आपकी प्रेमिका, आपकी 'बेटी' की तरफ से है, आपके लिए. किसी पर अपनी गंदी निगाहें डालने से पहले एक बार उनके चेहरे जरूर याद कर लीजियेगा. यूँ ये अपराध ख़त्म होने की उम्मीद बिलकुल भी नहीं, जिन्हें सजा का कोई डर नहीं वो दूसरों को और भी भयभीत करते हैं.
- प्रीति 'अज्ञात'

Friday, October 2, 2015

झकास!

कहा था उसने
बरसों पहले कि  
एक तमाचे के पड़ते ही
बढ़ा देना दूसरा गाल 
न करना हिंसा का समर्थन
भूलकर भी कभी 
थामे रहना हमेशा
सच्चाई का दामन 
बदलते दौर और
लुप्त होती इंसानियत के बीच
कितना मुश्किल है
'गाँधी' सा होना

पर पलटकर एक और
प्रहार करने से भी
हासिल क्या ?
बढ़ती रहेंगी लड़ाइयाँ
होंगे आरोप-प्रत्यारोप
समाधान तो फिर भी न
निकल सकेगा!
और जो थामा, तुमने
झूठ का दामन
तो खुद ही सोचो
कैसे बुनोगे
रोज एक नई कहानी
'असत्य' की ?

'सत्य' तो यूँ भी
तय है, उज़ागर होना 
तो क्यूँ न बदल लें
हम विरोध के तरीके
और शर्मिंदा होने दें
उन्हें खुद ही अपने
हर गलत कृत्य पर

हाँ, कर लिया है प्रण
गहरा फिर इस बार
होगा बस
गाँधीगिरी का ही वार
यही मेरा विश्वास है
यही सबसे ख़ास है
है दिखने में छोटा
थोड़ा कमजोर ही सही
पर यक़ीन है, अब भी
उतना ही, पहले-सा 
वो आदमी 'झकास' है !
-प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, October 1, 2015

सुनो, भगवान.....

सुनो, भगवान...
आज भी वही हुआ
जो होता आया है
अब इन बातों से
ज्यादा हैरानी नहीं होती
हाँ, होता है मन उदास
कुछेक आँसू भी
अनायास ढुलक पड़ते हैं
मुट्ठियां भिंचती हैं
बेवकूफ़ कलेजा भी 
मुँह को आता है
रुंधता है गला
एक-दो दिन 
और फिर वही दिनचर्या
सब कुछ सामान्य
सच,'इंसानी जीवन' कितना
सस्ता हो चला है यहाँ

पता ही होगा न तुम्हें तो 
तुम्हारी ही बनाई दुनिया जो है
यहाँ तुमसे ज़रूरी कुछ भी नहीं
तुम्हारे अलग-अलग 
नामों की आड़ में
और उन्हीं नामों से बनी
पूजनीय किताबों में
होता है तुम्हारा ख़ूब ज़िक्र
कि तुम ये कर सकते
तुम वो कर सकते
तुम सर्वदृष्टा,
तुम सर्वज्ञानी,
तुम पालनहारा,
जग अज्ञानी 
तुम निर्माता
तुम दुख-हर्ता
तुम भाग्य-विधाता
तुम ही सबके दाता

सुना है
तुम्हारी अनुमति के बिना
एक पत्ता भी नही हिलता
ये प्राणवायु, नदिया की धारा
समंदर, पहाड़, पत्थर
सब में समाहित हो तुम

अब एक बात बताओ 
जब ये सब सच है
तो एक बार आगे बढ़कर
तुम खुद ही कभी अपने ऊपर 
सारा दोष क्यूँ नहीं ले लेते
हटते क्यूँ नहीं
हम सबकी दुनिया से
क्या तुम्हें समझ नहीं आता
इस सब की जड़ 
'बस तुम ही रहे हो सदैव'

या फिर ऐसा करो
एक ही झटके में
ख़त्म करदो ये दुनिया
और करो पुनर्निर्माण
इंसानियत का
बस, इस बार
उस पर
मेड इन हिंदू, मुस्लिम,
सिख, ईसाई, जैन,पारसी
या कोई अन्य धर्म का
ठप्पा लगाकर न भेजना
बस, 'मेड बाय गॉड' काफ़ी है  

और क्या कहूँ, मेरे दोस्त
जी बहुत व्यथित है 
जब रोक नहीं सकते
मानवता की लाश को
हर गली चौराहे पर 
दिन-प्रतिदिन गिरने से
तो हर बात का
श्रेय भी क्यूँ लेते हो 
छोड़ ही दो न 
हमें अकेला हमारे हाल पर 
प्लीज फॉर योर ओन सेक 
जीने दो हमें चैन से अब 
तुम्हारे नाम के बिना!
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 

Wednesday, September 16, 2015

मेरी दुनिया

देखते हुए तस्वीरें 
चेहरे की मांस-पेशियां 
करतीं हंसने की
नाक़ाम चेष्टा 
पलटतीं, कसमसातीं 
भीतर सिहराता दर्द 
तलाशता शून्य में 
खोया हुआ कुछ 
और एक आवाज़ सुनते ही 
सब शिथिल, 
विलुप्त, गड्डम-गड्ड 
गोया स्मृतियों को भी 
एकांत की गुज़ारिश 
तभी तो झुंझला गईं 
यूँ अकस्मात् 
सिमट जाने से

आकाश में जगमगाता 
एक ध्रुवतारा 
या जमीं की ओर 
बढ़ता कोई सितारा 
कभी अपना नहीं होता 
सब भ्रम है, झूठी तसल्लियाँ 
चाँद को देखने से भी कहीं 
दूरियाँ मिटती हैं भला 
हाँ, सुखद है 
ये काल्पनिक उपस्थिति

ग़र मृत्यु-आलिंगन 
सुनिश्चित करता 
क्षण भर का भी दृष्टिभ्रम 
तो जीवित रहना 
निरुद्देश्य था 
पर रहना है 
रहना ही होगा 
उसने कहा था 
'मेरे जाने के बाद ही 
समझ सकोगी दुनिया को'
मैं चुप थी
शब्दों की भावभंगिमा ने 
अनकहा भी कह डाला
समझ गई, ये सूचना भर है 
'जाना' तय हो चुका!

भावों को मोतियों में पिरोकर 
रोकती रही टूटकर बिखरने से
सर झुकाये
समेटती रही 
अपनी ही यादों का कफ़न 
और कितनी दफा कहती 
"मेरी दुनिया तुम हो 
उसके पश्चात् समझने को 
अब शेष रहा भी क्या "
- © 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित
Pic : Clicked by me

Monday, September 7, 2015

तुम, पूछना अवश्य !


ओह, मासूम बच्चे 
ये उम्र नहीं थी तुम्हारी
इस तरह जाने की
अभी बस कल ही तो तुमने 
माँ कहकर उसे गले लगाया होगा 
और पापा की उंगली थामे 
निकले होगे कभी शाम को 
देखते होगे टुकुर-टुकुर आँखों से 
पंछी, पौधे, नीला आकाश 
सब कुछ आश्चर्यचकित होकर  
कितने प्रश्न कौंधें होंगे 
ह्रदय में तुम्हारे 
जिनका उत्तर तुम्हें 
मिलना ही चाहिए था !

तुम्हें सीखनी थी गिनतियाँ 
कंठस्थ करनी थी 
कितनी ही बाल कवितायेँ 
खींचनी थी, आड़ी-टेढ़ी लकीरें 
पन्नों और दीवारों पर 
भरने थे उसमें 
अपनी कल्पनाओं के तमाम रंग
छुपना था कहीं किसी परदे के पीछे 
और "मैं यहाँ हूँ' कहकर 
इठलाते बाहर आना था 
तुम्हें अपनी तोतली जुबाँ से करनी थी तमाम ज़िद 
और इस सुनहरी हंसी से जीत लेनी थी दुनिया!

लेकिन मेरे आयलान 
ये दुनिया हंसती कहाँ है आजकल ?
और न ही हंसने देती है किसी को 
तभी तो छीन ली तुमसे 
तुम्हारी खिलखिलाहट 
और किनारे ला छोड़ा तुम्हें
निपट अकेला 
उसी रेत पर 
जहाँ टीले बनाने की उम्र थी तुम्हारी!

तुम इस दुनिया में 
कक्षा का पहला पाठ भी न 
पढ़ सके 
और देख ली, तुमने 'दुनियादारी'
काश, अब हम सब भी 
न मुंह फेरें 
रेत पर औंधे मुंह सोती हुई सच्चाई से 
पुरानी कहावत हुई 
कि "दर्द को महसूस किया जा सकता है 
वो दिखता नहीं"
इधर तुम्हारी तस्वीर 
कलेजा चीरकर रख देती है!

ओ मेरे, नन्हे दोस्त
अलविदा तुम्हें ! 
लेकिन पूछना अवश्य 
उस ईश्वर से 
जो लहरें बन तुम्हें,
इंसानियत की लाश ठेलता 
तट तक बहा तो लाया 
पर जीवित क्यूँ न रख सका ?
उसकी न्याय की पुस्तक में 
हर निर्णय, देरी से ही क्यों आता है ?
कैसे बर्दाश्त होती है उसे 
किसी निर्दोष की निर्मम मौत ?
क्यों बचा लेता है वो आततायियों को,
गुनाह के बाद भी 
इक और गुनाह करने के लिए !!
आख़िर, दूसरे के पापों की सजा 
बेबस, मासूम लोग ही क्यों भुगतते हैं ??
- प्रीति 'अज्ञात'

एक तस्वीर Aylan Kurdi की, Twitter से साभार !

Thursday, September 3, 2015

शायद, कभी...!

आओ, काटो, रेत दो 
उम्मीदों का गला 
कि इंसान न बन सके तुम 
तोडना चाहते हो 
इरादों को ?
खरीदोगे, जज़्बातों को ?
जाओ, जाकर सीख लो 
पहले इंसानियत 
तो समझ सकोगे 
संवेदनाओं को 
और शायद फिर 
हर शब्द का अर्थ 
पर यक़ीं हो चला 
तुम जैसों का
इस दुनिया में 
होना ही व्यर्थ !

मत भूलना कि 
शब्दकोष की थाह नहीं होती 
अधर्म, अन्याय की कोई 
मंज़िल, कोई राह नहीं होती 
पर ग़र तय हैं तुम्हारी राहें 
तो कान खोलकर सुन लो 
कि कोई न ख़त्म कर सका 
शब्दों की भाषा 
ये तो है वटवृक्ष  
जो नित ही जन्म देगा   
अनगिनत शाखाओं को 
तुम्हारा हर प्रहार
उतनी ही गति से 
पैदा करता जायेगा 
रोज दो नए अविजित,
जगेन्द्र, अक्षय, कलबुर्गी 
और फिर चार 
चार से सोलह 
बत्तीस, चौंसठ 
बढ़ता रहेगा आंकड़ा 
हार जाओगे तुम 
वार करते-करते 
और एक दिन
ग़श खाकर 
इसी वृक्ष की छाँह में 
सुस्ताना पसंद करोगे !

यक़ीन मानो, तब तुम्हें भी अपने घृणित कृत्यों पर भीषण पीड़ा होगी और शायद अफ़सोस भी !

© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित 
.............................................................................................. 

बस, नाम ही तो अलग है और क़ातिलों के चेहरे भी ! पर सच्चाई को ख़त्म करने की 'मौत के सौदागरों' की मंशा नहीं बदली !
इधर दु:ख का वही पुराना, घिसा-पिटा राग...... कि ये भी एक आम आदमी के जीवन की 'सामान्य घटना' बनकर रह जाने वाली है! हम भी लिखते-लिखते थक ही जाएंगे, कभी-न-कभी !

Tuesday, August 18, 2015

कवि



दिल के दो टुकड़े होते ही
नहीं फूटने लगती है
शब्दों की अविरल धारा
और न ही प्रेम के दो छंद 
लिखते ही बन सका कवि कोई
जियो एक कायरों-सी ज़िन्दगी चुपचाप 
मत करो प्रतिशोध किसी बात का 
घुटते रहो भीतर तक 
घसीटो हर पीड़ा 
जीवन के सुन्दर स्वप्न को 
तार-तार कर 
भिगोते रहो 
निरर्थक अहसासों की कलम से,
पुरानी डायरी के 
चुनिंदा वाहियात पन्ने 
फिर छुपा लो उन्हें 
दुनिया की नज़र से 
हाय! चोट न पहुंचे 
किसी के ह्रदय को

थक जाओगे जिस दिन 
सबको सँभालते हुए
उतार फेंकोगे 'महात्मा' का चोला 
खिसिया जाओगे अपनी ही 
निरर्थक परिभाषाओं से
चीखोगे-चिल्लाओगे
कहीं कोने में दुबककर 
थोड़े आँसू भी बहाओगे 

ठीक तब ही अचानक 
टूटेगा सब्र का बाँध  
खिंचेगी हर शिरा-धमनी 
छटपटायेंगी वर्षों से ज़ब्त 
आलसी माँस-पेशियाँ भीं 
भींचोगे मुट्ठी अपनी 
फेंक आओगे उठाकर 
दुनिया के सारे बेहूदा 
नियम-कानून 
भरेगा साहस रगों में 
और न होगा मृत्यु-भय कहीं 
एन उसी वक़्त 
चीखते हुए बाहर आएगा 
तुम्हारे अंदर का कवि 
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित

Tuesday, July 28, 2015

पढ़ना चाहोगे ?

'कविता' नहीं है मात्र
प्रेम और बिछोह की
स्वादिष्ट चटनी 
नोचना होता है इसमें 
हर गहरा घाव खसोटकर
कि रिसती रहे पीड़ा
और जीवित रहे भाव
जीनी होती है
एक मरी हुई ज़िंदगी दोबारा
खींचकर लाना होता है 
किसी कोने में दुबका, सहमता 
असहाय बचपन 
खोलना होता है 
जबरन भींचा गया मुँह 
करनी होती है निर्वस्त्र
उसकी हर पीड़ा !

आवश्यक है दिखाना, दुनिया को 
एक स्त्री की नीली पड़ी पीठ
और जाँघों से रिसता लहू 
खून के आंसू पीते हुए 
हंसना होता है 
लोगों के हर भद्दे मजाक पर
देखना होता है, कातर आँखों से 
अपने ही शहर के चौराहे पर 
मौत का भीषण तांडव 
और गलियों में 
टुकड़े-टुकड़े हो रहा धर्म 
इंसानों की शक़्ल में 
बर्फ होता शरीर या कि 
बेबस मानवता की लाश ?
अंतिम-संस्कार किसका है?
कौन तय करे ?

मारना चाहोगे न 
अब तो, एक करारा तमाचा 
अपने ही समाज के गाल पर!
हाँ, हँसेंगे कुछ कायर वहां 
तुम्हारे इस मूर्खतापूर्ण कृत्य पर 
तुम फिर सहलाते हुए 
अपनी ही झुकी पीठ को 
नम आँखों से 
मांगोगे मुक्ति 
फोड़ोगे सर दीवारों से
कि ख़त्म हो सके
हृदय की हर संवेदना 
और फिर न बन सके 
कवि कोई !

अभिव्यक्ति को
शब्द-संयोजन में गढ़कर 
परोस देना भर ही 
नहीं है 'कविता' 
मेरी समझ में
"यह एक नृशंस हत्या है 
कवि की 
रोज अपने ही हाथों!"
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic : Preeti 'Agyaat'

Sunday, July 5, 2015

तलाश....!

मैं देख रही होती हूँ
तुम्हारे शब्दों को
और इधर
चिथड़ा-चिथड़ा टूटकर
बिखर जाता है मन
पढ़ना चाहती हूँ उन्हें
उलट-पलटकर
इस उम्मीद से
कि कहीं कुछ तो ज़रूर होगा
मेरी ख़ातिर!

पर कितनी बार
हुई बेबस हर बात
खोते हुए अर्थ के साथ
हताश है अहसास
हर बार, हर शब्द
वही इशारा करता है
कि तुम चली क्यूँ नहीं जातीं!

हाँ, लगने लगा है
मुझे भी अब
कि ख़ुद को दूर ही रखना है बेहतर 
तुम्हारे लिए
तुमसे
दुनिया से
अपने-आप से
जुदा होकर
कैसे जियूंगी?
यह सवाल मेरा है
तो यक़ीनन
उत्तर भी मुझे ही
तलाशना होगा!
- प्रीति 'अज्ञात'

Friday, July 3, 2015

बच्चू

तुम इतने छोटे थे
कि याद भी नहीं होगा तुम्हें
सोचती थी तब अकेली
कैसे संभालूंगी इसे
दूर देश, न कोई आसपास
खरीदी किताबें
हाँ, तब भी यही थीं साथी
समझा हर एक पन्ना
और कुछ तुम्हारे साथ
समझती रही
जीती रही तुझमें
अपना खोया बचपन
मुस्कुराई तुम्हारी हर मुस्कान के साथ
सिखाया हर पाठ ज़िंदगी का
सही-ग़लत, अच्छा-बुरा
वो भी जो मैं ख़ुद
अब तक न सीख सकी
तभी तो तुम बोल देते हो
बड़े प्यार से मुझे 'बच्चू'

समय के साथ-साथ पार कर ली
तुमने मेरी लंबाई
हा,हा...ये टारगेट यूँ भी 
छोटा ही तो था न !
खैर...जा रहे हो तुम
और जी घबरा रहा मेरा
कौन उठाएगा रोज तुम्हें
न जाने समय पर खाओगे भी या नहीं
दोस्त कौन-कैसे होंगे
फिर देती हूँ तसल्ली
अपने ही मन को
सभी तो तुम जैसे ही
होंगे न वहाँ
उनकी माँ भी यूँ ही
घबराती होगीं
और वो बच्चे भी समझाते होंगे
तुम्हारी तरह
डोंट वरी, मम्मा!

यूँ विश्वास है तुम पर,
खरे सोने-सा
हो भी व्यवस्थित
और हर माँ की तरह
आँख के तारे हो मेरे
डर तुमसे नहीं
मेरी हर दुआ
हर पल तेरे साथ है
फिर भी न जाने क्यूँ
डरा देता है रोज का अख़बार!
जानते तो हो न
कितनी फट्टू है तेरी माँ
एक बात और है..... 
उफ्फ, अब कौन भगाएगा
वो गंदी-सी छिपकली ! :(  
- प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, June 21, 2015

अंतरराष्ट्रीय योग-दिवस की अनंत शुभकामनाएँ !

धर्म और राजनीति से परे, एक क़दम जागरूकता और सकारात्मकता की ओर ! कुछ शब्द, बच्चों के लिए -

अहा, अद्भुत ये संयोग
हर जगह इसका प्रयोग
ज्ञान बढ़ाए, बुद्धि जगाए
बोनस में चेहरा चमकाए
और रखे निरोग

हर सुंदर शब्द में शामिल है जो
देता है सहयोग
चल क़दम बढ़ाएँ
स्वस्थ रहें हम
कर इसका उपयोग

आशाओं के दीप जलाएँ
जीवन से हर रोग भगाएँ
सच्ची-अच्छी सोच रखें
न रहे कोई वियोग
आओ हम सब साथ चलें
अब नित दिन करके योग
- प्रीति 'अज्ञात'

HAPPY FATHER'S DAY !

Not a Poem....Pure Emotions !
Dedicated to all the Fathers, Who are working so hard
A Salute to You All & Ofcourse
HAPPY FATHER'S DAY !

तुम कहते कुछ भी नहीं
पोंछ देते हो बस, कभी-कभार
माथे-से छलकते आँसू
और देखते हो अक़्सर
आसमाँ को
मानो पूछ रहे हो
उस ऊपरवाले से
मैनें किया क्या है, यार!

ह्म्‍म्म्म, वाजिब है तुम्हारा
उससे ये पूछना
आख़िर घर से निकलते समय
और भीतर क़दम रखते ही
शिकायतों की आड़ में दबी
सवालों की बौछार
हताश तो कर ही देती है न !

क्यूँ नहीं सोचता कोई
कि सुबह से रात तक वो
रोटी की जुगाड़ में है लगा
कर रहा पूरी तुम्हारी हर अपेक्षा
लेता है छुट्टियाँ
भले खानी पड़ें झिड़कियाँ
फिर असल छुट्टी का दिन भी
गुज़ार ही देता है
फ़रमाइशों की सूची तले पिसकर

भाग रहा दिन-रात
हर मौसम में
कि सलामत रहे 
उसके अपनों के चेहरों पर
वही पहले-सी मुस्कान
सोचो, कैसा लगता होगा उसे
जब वही चेहरे पलटकर कह दें
आपने किया क्या है, हमारे लिए
ओह्ह्ह, दुखद! काश, सोचो
कभी यूँ भी.... 
अरे, तो फिर वो
अब तक आखिर,जीता रहा 
किसके लिए?

वो तब भी चुप था
वो अब भी चुप है
माँ की महानता के आगे
उसकी क़ुर्बानियाँ छुपती गईं
निभाता रहा वो उन्हें तब भी
निभा रहा अब भी
वो मौन है
बस, उसके आँसू 
माथे से ढुलक पड़ते हैं 
पोंछ देता है उन्हें
अपनी ही शर्ट की
बाहों से
क्या करे आख़िर...
'पिता' जो है !
- प्रीति 'अज्ञात'

यूँ ही .....

सोचती हूँ 
तुम मिलोगे 
तो ये कहूँगी 
वो कहूँगी 
लड़ूंगी घंटों 
शिकायतें करुँगी 
तुम सुनते रहोगे चुपचाप 
कुछ भी कहे बग़ैर 
और मेरे रुकते ही 
खी -खी कर बोल उठोगे 
हुँह , तो क्या हुआ !
और फिर .....
फिर मैं हंसने लगूँगी 
हम हंसने लगेंगें 
और उड़ने लगेंगे 
शिकायतों के पर 
पागल मन की 
बेवकूफियों के सबूतों को 
मिटाने की जल्दी में 
थमा देंगे अचानक ही
छुपाई हुई गिफ्ट 
एक दूसरे को 
ये कहते हुए 
लो, मरो 
थक गए, इसे संभाल-संभालकर 
पर अगली बार ऐसा किया न 
तो क़सम से 
चटनी ही बना दूंगी तेरी ! 
- प्रीति 'अज्ञात'

** एक मुलाक़ात, हर शिक़ायत को कैसे मौन कर देती है न ! पर उस मुलाक़ात तक शिक़वे -शिकायतों का दौर चलता ही रहता है ! है, न ! 




बचपन की यादें

कैसा सूनापन था उस दिन 
घर के हर इक कोने में, 
नानी तू जिस दिन थी लेटी 
पतले एक बिछौने में.

फूलों-सा नाज़ुक दिल मेरा 

सबसे पूछा करता था, 
कहाँ गया, मेरा वो साथी 
जो, सुख से झोली भरता था.

कैसे तू अपने हाथों से 

हर पल मुझे खिलाती थी, 
माथे की सलवटों में तेरी 
बिंदिया तक मुस्काती थी.

तू प्यार से मिलती, गले लगाती 

जाने क्यूँ रोया करती थी? 
तेरे गालों के गड्ढों से मैं 
लिपट के सोया करती थी.

पर मन मेरा था, अनजाना-सा 

कुछ भी नहीं समझता था, 
तुझसे जुदा होने का तब 
मतलब तक नहीं अखरता था.

अब आँगन की मिट्टी खोदूं 

तेरी रूहें तकती हूँ, 
संग तेरे जो चली गईं 
खुशियाँ तलाश वो करती हूँ.

आँसू बनकर गिरती यादें 

बस इक पल को तू दिख जाए. 
पर दुनिया कहती है, मुझसे ये 
जो चला गया, फिर न आए !
- प्रीति 'अज्ञात'

पूरा फिल्मी ही है, न ?

समंदर किनारे बैठे
तुम और मैं
सुनेंगे धड़कनों के गीत
अपने मन की ताल पर

हेडफोन का एक-एक सिरा
कानों में ठूँसकर
देंगे विदा दुनिया की
बेहूदा आवाजों को

बाँध लेंगे हौले से
मुट्ठी भर सपना
हाथों को पीठ पीछे
चुपके से बाँधकर

गिनेंगे एडियों तक
छूकर लौटती हुई
अनगिनत इच्छाओं की
बेचैन लहरों को

दूर आसमाँ से टकराता
भावनाओं का ज्वार
देगा भरम मिलन का
इधर, चुप्पी ओढ़ लेगा ह्रदय

नाराज बच्चे-सी, समेटनी होंगी
बेबस मन की तसल्लियाँ
हक़ीक़त की क्रूर दुनिया में
बस यही मायूसी तो मुमकिन है

रेत पर लिखे दो नाम
मिलते हैं, एक-दूसरे से
फिर हो जाते हैं ओझिल
न जाने किन दिशाओं में

चीखती-चिल्लाती स्मृतियाँ
वक़्त के बहाव को
टुकुर-टुकुर देख
बदल लेती हैं, अपनी करवटें

ह्म्‍म्म...यही सच है
जीवन का
बाकी सब तो
पूरा फिल्मी ही
है, न ?
- प्रीति 'अज्ञात'


'अतुकांत कविता'

बेतुकी इक धुन 
काग़ज़ों में लिपटी उदासियाँ
गुमशुदा-से स्वप्न
लंबी इक डगर
सूना, अनजान सफ़र 
कुछ शब्द अन-उकरे
कुछ बादलों में संघनित भरे 
कुछ शुष्क हो, चरमराए
समय की चिलचिलाती धूप में
कुछ वाष्पित हो, 
ढूँढा किए अपने निशाँ
उसी गहरे कूप में 
वहीं ठिठककर रह गये
गिरते रहे लफ्ज़ बन
कुछ बीच राह ही ढह गये
और फिर भटके रास्ते
जुड़ा कोई कहीं
उम्मीद जब थी ही नहीं
शब्द,रिक्त-स्थान,शब्द
शब्द.....? शब्द.....??
क्रम टूटा, बिखरा,खो गया
बढ़ता रहा, तितर-बितर हो
नैराश्यता की ओर!

लय, राग-अनुराग से विमुख
गतिहीन जीवन, अलक्षित-सी सोच
समय से परे
यादों के अनियंत्रित ताबूत में
रोज़ ही एक गहरी कील
खोदती जाती भीतर तक
स्मृतियों का गहरा कुँआ
गोते लगाती, डूबती-उतराती
कृत्रिम-मुस्कान के आवरण तले
अपने होने का भरम बनाती
हारती-टूटती ज़िंदगी
और है भी क्या
एक 'अतुकांत कविता' के सिवा !
- प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, May 6, 2015

बेवक़ूफ़ा !!

'प्रेम'
पता नहीं क्या है 'प्रेम'
पढ़े थे अनगिनत किस्से 
सुनी कितनी कहानियां भी 
लैला-मजनूँ , शीरी-फरहाद,
हीर-राँझा और मोहल्ले की 
गुड्डी और बबलू की 
अखबारों में छपी 
प्रेम कहानी ने भी 
मन को छुआ था कभी 
पर बात बस, वहीँ तक 
सीमित रही 
महसूसा नहीं कभी !

तुम मिले तब,
जबकि इसके होने पर से ही 
यक़ीन उठ चला था 
पर बदलने लगे ख़्याल  
और जाना 
हाँ , यही है 'प्रेम'
तुम्हारी आवाज़ 
मेरी साँसें 
तुम्हारा हँसना 
मेरी धड़कन 
तुम्हारी जीत 
मेरी ख़ुशी 
तुम्हारा दुःख 
मेरी परेशानी 
जीने लगी तुम्हें 
तुमसे पूछे बग़ैर !

यक़ीनन यही  था 'प्रेम'
यही है 'प्रेम'
यही होता होगा 'प्रेम'
वरना तुम्हारा स्पर्श,
अहसास की याद भर 
क्यूँ देती 
जाड़ों में खाई आइस्क्रीम-सी 
गुदगुदाती मीठी सिहरन 
तुम्हारा आलिंगन क्यूँ लगता 
जैसे कछुआ घुस गया हो 
अपने सुरक्षित खोल में 
तुम्हारा चुम्बन क्यूँ देता 
सूखी धरती पर 
पहली बारिश की 
पूर्णता-सा सुख 
तुम्हें याद करती हूँ 
तो भीगता है मन 
सोचो, कैसा होता होगा 
बारहों महीने भीगते रहना !

तुम कुछ कहते क्यों नहीं 
क्या यही है प्रेम ?
क्या यही था प्रेम ?
क्या अब भी मेरे-तुम्हारे बीच 
शामिल है प्रेम ?
अपनी क्या कहूँ 
'बेवक़ूफ़ा' ! 
यही नाम दिया था न 
तुमने मुझे 
हाँ, सच्ची ! तभी तो 
आज भी मैं, 'इसे' 
'महबूबा' का पर्याय मान 
खुश हो लेती हूँ !
- प्रीति 'अज्ञात'

Friday, April 17, 2015

ज़िंदा हूँ मैं

मैं छोड़ती नहीं हूँ उम्मीद
उम्मीद के ख़त्म हो जाने पर भी
नहीं रहती मौन
शब्दों के चुक जाने पर भी
हँसती हूँ व्यर्थ ही
हँसी न आने पर भी
पुकारती हूँ गला फाड़
अनसुना हो जाने पर भी !

कि उम्मीद को छोड़ा
तो फिर रहा क्या ?
जो दोहराया ही न खुद को
तो आख़िर कहा क्या ?
न हँसी व्यर्थ ही
तो कब हँस पाऊँगी
चीखकर जो पुकारा
तो खुद से ही मिलके आऊँगी !

उम्मीद के पूरे होने की, 
स्वार्थी उम्मीद में
अब नहीं जीती मैं
उत्तरों की बाट जोहती 
सूखी सुराहियाँ 
नहीं पीती मैं
हँसती हूँ कि 'ज़िंदगी'
चलती रहे
पुकारती हूँ, कि चलो
मेरी ही ग़लती रहे !

वरना ये समझने में अब
कोई मुश्किल, न कला 
नि:स्वार्थ कोई किसी का
कभी, हुआ है भला !
और फिर एकाएक खिल पड़ती हूँ मैं
जैसे अपनी ही बेवकूफ़ियों से मिल पड़ती हूँ मैं !

है बंजर ज़मीं, उधर सरहदों में
मैं उड़ती इधर, अपनी हदों में
जैसे सोने के पिंजरे का 
इक परिंदा हूँ मैं
ईमां सलामत, तभी तो
"ज़िंदा हूँ मैं" !

- प्रीति 'अज्ञात'