Sunday, September 30, 2018

पहचानती हूँ

चाल से, अंदाज़ से हर रंग इनका जानती हूँ 
रिश्तों के इन गिरगिटों को ख़ूब मैं पहचानती हूँ 

मंदिरो-मस्ज़िद में जाता जानकर मैं क्या करूँ 
आदमी दिल का भला हो इतना ही बस मानती हूँ 

लाल, केसरिया, हरे हों से मुझे मतलब नहीं 
झण्डा तो इक ही तिरंगा शान मेरी जानती हूँ 

ये अलग बस बात है कि बोलती अब कुछ नहीं 
लाख अच्छे का करो तुम ढोंग सब पहचानती हूँ 

क्या पता मैं कब मिलूँगी या मिलूँगी भी नहीं  
खोज में तेरी मग़र मैं खाक़ दर -दर छानती हूँ 

मेरे हाथों की लक़ीरें रोकती हैं अब मुझे 
टूटते तारे से जब कोई भी मन्नत माँगती हूँ 
- प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, September 20, 2018

चले जाने के बाद

कवि के चले जाने के बाद 
शेष रह जाते हैं उसके शब्द
मन के किसी कोने को कुरेदते हुए 
चिंघाड़ती हैं भावनाएँ 
कवि की बातें, मुलाक़ातें 
और उससे जुड़े किस्से 
शब्द बन भटकते हैं इधर-उधर  
जैसे पुष्प के मुरझाने पर 
झुककर उदास हो जाता है वृन्त
जैसे उमस भर-भर मौसम 
घोंटता है बादलों का गला 
जैसे प्रिय खिलौने के टूट जाने पर 
रूठ जाता है बच्चा 
या कि बेटे के शहर चले जाने पर 
गाँव में झुँझलाती फिरती है माँ
वैसे ही हाल में होते हैं 
कुछ बचे हुए लोग 
पर जैसे थकाहारा सूरज 
साँझ ढले उतर जाता है नदी में 
एक दिन अचानक वैसे ही
चला जाता है कवि भी 
हाँ, उसके शब्द नहीं मरते कभी 
वे जीवित हो उठते हैं प्रतिदिन 
खिलती अरुणिमा की तरह 
- प्रीति 'अज्ञात'
(Image: Gavin Trafford)