Thursday, September 25, 2014

वक़्त के साथ-साथ..

ये न कविता है, न कहानी है
वही मासूम ज़िंदगानी है
तुम हँसे थे देख, जिनको कभी
उन्हीं आँखों से गिरा पानी है.

तमाम उम्र जिसका इंतज़ार रहा
वो मिले भी तो, कभी कुछ न कहा
बदलते दौर संग बदलते रहे
रिश्ते हैं या मौसम की ये रवानी है.

वक़्त के दरिया संग बहते रहो
न करो उफ़ भी, ज़ख़्म सहते रहो
कल यहाँ थी, अब दिखेगी कहीं
ये मोहब्बत भी आनी-जानी है.

न गमगीन हो बैठो यूँ अभी
तुम्हारी मौत खुद आएगी कभी
न मानें हार जो हिम्मतवाले
इक कोशिश की फिर से ठानी है.

मतलबी दुनिया में ढूँढे किसको
न चली दिल की भी मनमानी है
दौरे-तूफ़ां में कोई थामेगा तुझे
तेरी ये सोच ही बचकानी है !
- प्रीति 'अज्ञात'
चित्र : गूगल से साभार !

6 comments:

  1. बेहतरीन भावाभि -व्यक्ति

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  2. मुहब्बत की हकीकत ऐसी भी हो सकती है ...
    बहुत लाजवाब ...

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    1. बहुत-बहुत आभार, प्रतिक्रिया के लिए !

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  3. बहुत अच्छी कविता दी ! बहुत कुछ दिया सोचने के लिये।

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