Saturday, March 1, 2014

यूँ ही....

हाथों में एक रिपोर्ट-कार्ड
वही इकलौता कार्ड 
जहाँ हम चाहते हैं, कि
हर टेस्ट का रिज़ल्ट 'नेगेटिव' हो.
कुछ पलों के लिए, जैसे 
थम-सा जाता है समय
यूँ तो हुआ करता है, बीच में
लोगों का आवागमन
सुनते हैं किस्से-कहानियाँ
थोड़ी राय, थोड़ा आश्वासन.
जीवन का सारा मनोविज्ञान
एक ही झटके में
तैरने लगता है आँखों में
जब चल रही होती है
एक शल्य-चिकित्सा मरीज पर
और दूसरी उसके ही मस्तिष्क के भीतर !
मन उधेड़कर रख देता है
भौतिकवादी दुनिया का हर निर्मम सच.
बहुत कुछ महसूस होता है
दरवाजे के उस पार, पर
अचानक जैसे सब, सिमट जाता है
एक कमरे के अंदर
और कोई कहता है कि, जीने के लिए ज़रूरी है
बस गिनती की कुछ धड़कनें
और श्वास-प्रश्वास की मद्धिम-सी गति
छोड़ो न ! व्यर्थ की भागा-दौड़ी
सुनो तो ज़रा, करीब से
देखो, कितना कुछ कह गया,
बिन बोले ही
अस्पताल का ये छोटा सा कमरा !

प्रीति 'अज्ञात'