Friday, December 29, 2017

उदासी का रंग

उदासी भी कभी-कभी 
बड़े अपनेपन से
करती है गलबहियाँ 
भरते है रंग इसमें  
सूखे हुए फूल 
पीले पड़े पत्ते 
कमजोर, शुष्क,
बेजान टहनियाँ 
समंदर में डूबती-उतराती 
किनारों से टक्कर खाती  
निराश लौटती लहरें 
वहीं कहीं पार्श्व से बजती 
जगजीत की जादुई आवाज 
'कोई ये कैसे बताए...!'
और ठीक तभी ही
समुंदर में स्वयं ही 
डूब जाने को तैयार
 थका-हारा लाल सूरज
सब संदेशे हैं 
नारंगी-बैंगनी और फिर 
यकायक स्याह होते आसमान के 
कि उदासी भी एक रंग है 
ओढ़ा हुआ-सा 
- प्रीति 'अज्ञात'

Tuesday, December 19, 2017

अंतिम कवि

उस पल जब होगा आगमन प्रलय का 
और विलीन हो जाएगी ये दुनिया
तब भी शेष रह जाएगा
कहीं कोई कवि 
ढूंढता हुआ
अपनी तमाम प्रेम कविताओं में 
जीवन की ग़ुलाबी रंगत
बदहवास हो तलाशेगा 
उजाड़ हुई बगिया में 
मोगरे की खोई सुगंध  
निष्प्राण वृक्षों के क्षत-विक्षत घोंसलों में
बेसुध पड़े पक्षियों का कलरव  
टहनियों में अटकी 
रंग-बिरंगी तितलियों की लुप्त चंचलता 

वह उस दिन विकल हो
निर्जन, सुनसान सड़कों पर
हाथ में थामे जलती मशाल
नंगे पैर चीखता हुआ दौड़ेगा
ढूंढेगा उसी समाज को 
जिसके विरुद्ध लिखता रहा उम्र भर 
अपनी ही आँखों के समक्ष देखेगा
संभावनाओं का खंडित अम्बर 
भयाक्रांत चेहरे से उठाएगा 
उस रोज का अख़बार 
जिसका प्रत्येक पृष्ठ 
अंततः रीता ही पाएगा 

श्रांत ह्रदय से टुकुर -टुकुर निहारेगा 
सूरज की डूबती छटा
और फिर वहीं कहीं
अभिलाषा की माटी में रोप देगा
जीवन की नई परिभाषा  
कर लेगा मृत्यु-वरण 
उसी चिर-परिचित आह के साथ
लेकिन जो जीवित रहा तब भी
तो अबकी बार 
चाँद की ओर पीठ करके बैठेगा 
- © प्रीति 'अज्ञात' 2017