Sunday, December 30, 2018

प्रेम

उसके दूर चले जाने पर भी मैं 
रत्ती भर नाराज़ नहीं हो सकी उससे 
हाँ, उम्मीद और विश्वास से भरे आसमान में  
अपना एक सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा
छिटकता हुआ देखा मैंनें 
और यह भी जाना कि 
अपने-आप को किसी के लिए 
उम्र भर समर्पित कर देने के बावजूद
मैं शायद....उसके लिहाज़ से
एक उम्दा प्रेमिका के खाँचे में 
अब तक फिट नहीं बैठ पाई हूँ 
तब टूटना, बिखरना और 
अपनी बेबसी पर घंटों रोना
मेरे इसी दुःख के साथी बने  
उस पल मैं चीखना चाहती थी जोरों से 
फोड़ देना चाहती थी उन क़िस्मतों का माथा 
जिसने मेरे प्रेम को मुझसे छीनने की 
बेधड़क, नाजायज़ गुस्ताख़ी की थी 
पर महसूसा कि कोई किसी को 
यूँ ही तो नहीं छीन सकता 
जब तक जाने वाले के मन में भी
चहकते नए भाव और नई उम्मीदें
 न उपजी हों
जानती हूँ, समझती हूँ  
प्रेम जबरन नहीं होता
तब ही तो अब, किसी भिक्षुक की तरह 
बार-बार आवाज देकर 
नहीं पुकारूँगी उसे 
नहीं झूलूँगी किसी भँवर में
बार-बार सिद्ध करने को अपनी सार्थकता 
यूँ भी प्रेम कहाँ कभी किसी की उपस्थिति का
मोहताज़ हुआ करता है
- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, December 10, 2018

इन दिनों,

इन दिनों,
दिन है जैसे सूरज की फैली बाँहें
और रात चाँदनी की चादर ओढ़े हुए 
उनके आगोश में मौन हो सिमट जाना 
स्मृतियाँ हैं चुपचाप बहती नदी 
और उदासी उसमें घुप्प से घुस गया
भारी नुकीला पत्थर 
बीता समय उस ऊँचे पहाड़ की चोटी के पीछे 
खोया एक खरगोश है 
जो लौटकर आ ही न पाया कभी
निराशा है स्याह काजल भरा आकाश
और आँसू दुःख के बादलों में धँसी
ओस की पहली बूँद है कोई 
जो सुबह के रेशमी तकिये पर 
रोशनी का स्नेहिल स्पर्श पाकर 
ढुलक जाती है अनायास
स्वप्न..है दमित इच्छाओं की आतिशबाज़ी
उम्मीद...अलादीन का खोया चिराग़
और 'सुख' पुरानी पुस्तक में मिला 
करारा पाँच रुपये का नोट
- प्रीति 'अज्ञात'