Wednesday, April 30, 2014

ज़िंदगी

मैंने देखे हैं -
सपने बुनते हुए लोग
और ढहते हुए ख़्वाब
जगमगाती हुई एक रात
और सिसकते जज़्बात
मचलते हुए अरमान
और टूटता आसमान !

महसूस की है -
मुस्कुराहट में छिपी उदासी
और अंदर की बदहवासी
महफ़िल में बसी खामोशी
और हर इक कोना वीरान
हालात से चूर-चूर
और जीने को मजबूर !

और जाना इस राज़ को -
कि मुरझाए से कुछ चेहरे
हर पल बदलते रिश्ते
टूटते हुए घरौंदे
उदासी की छाई बदली
भीगे हुए-से पल
ही तो प्रतिबिंब हैं
उस 'शै' का
जिसे 'ज़िंदगी' कहते हैं....!

प्रीति "अज्ञात'

Sunday, April 27, 2014

अब डर नहीं लगता

हाँ, अब डर नहीं लगता
ज़िंदगी या मौत से
ये तब ही होता है
जब हमारे न होने पर
किसी और की 
सलामती की फ़िक्र बाकी हो
या फिर फ़र्क पड़ता हो
किसी को हमारी
गैर-मौज़ूदगी का.

पर एक दिन
छन्न-सी आवाज़ होगी
भीतर ही कहीं
और टूट जाएगा
सब भरम तुम्हारा
जान जाओगे, कि
अविश्वास की पट्टी बाँधे
एक-एक कर
सभी करना चाहते हैं
तुमसे उम्र-भर को किनारा.

हाय दुर्भाग्य तेरा !
रह सकते हैं
सब तुम बिन भी
कुछ ज़्यादा ही आराम से
तो क्या ? जो जी लिए 
कुछ पल खुशी के, उन्होंने
तेरी सुबहो-शाम से.
फ़िक्र न कर, उसके एवज में वो
छलका देंगे, चंद आँसू, गाहे-बगाहे
तेरी ही 'पुण्यतिथि' पर
पर इतना तो तय-सा ही हैकि
अब 'तुम्हें' मौत से डर नहीं लगेगा.

बहुत बुरा मंज़र होगा
कुछ दिनों के लिए
छलनी हो बिखर जो जाएगा
नाज़ुक ये हृदय तुम्हारा
होगी असह्य वेदना भी
छटपटाओगे दिन-रात, यादों के
उसी श्वेत ताजमहल में.
जब-जब समेटना चाहोगे
उन अपने टुकड़ों को
उठेंगीं कई घृणित निगाहें एक-साथ
कोसेंगीं जी-भर के तुम्हें
फिर बिखरा देंगीं
हमेशा के लिए
छिटककर और भी.

मेरी मानो तो, छोड़ ही देना उन्हें तुम
जीवन का सबक समझकर
शायद कुछ वर्ष और भी गुजरें
बेहद उदासी और अवसाद में
कुछ लम्हे राहें भी तकोगे
उसी अनिश्चित आस में.
पुरानी आदत जो ठहरी,
सो झाँकोगे भी कई दफे 
उसी ना-उम्मीदी वाली खिड़की से
जहाँ न आया है कोई न आएगा 
पर इस बार अकेले होकर भी
तुमको इस एकांत में डर नही लगेगा.

फिर यूँ ही अचानक एक दिन
जीने लगोगे, एक मजबूर प्रण लेकर
हल्की सूनी, धीर-गंभीर, काली-गड्ढेदार
अधूरी इन्हीं आँखों में
मोतियाबिंद से वही इक्का-दुक्का
धुँधलाते हुए ख्वाब समेटकर
रोया करोगे तन्हाई में भी कभी
आसमाँ-सी नीली तारों वाली 
उसी पसंदीदा दीवार से
अपना माथा टेककर
ज़रा सी आहट होते ही, पोंछोंगे आँसू
ओढ लोगे नक़ाब तुरत ही
उसी फीकी-सी हँसी का
मिलोगे मुस्कुराकर, इस बार भी
वही पहले की तरह सबसे.

अरेसामाजिक प्राणी भी तो हो
अब भी निभाना ही होगा अपना ये धर्म
हाँज़ीनी ही होगी ये दोहरी ज़िंदगी तुम्हें
पर हमेशा के लिए निश्चिंत
उम्मीदों से कोसों दूर
दफ़ना देना अपने सारे ख़्वाब
अपनी ही दिल की ज़मीं को खुरचकर
और देखना तब तुम्हें फिर कभी भी
'मौत' से डर नहीं लगेगा !

प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, April 24, 2014

ये कविता नहीं...सच है !

न जाने क्यूँ लिखा करती हूँ मैं
जो झूठ लिखूं तो लिखने का मतलब ही क्या
जो सच कहा, तो ढेरों सवाल होंगे
हाँ, जानना चाहते हैं सब
दूसरों के शब्दों के पीछे छिपा मर्म
समझ जाते हैं कुछ तो बिना कहे ही
और बाकी ताका करते हैं
सवालिया नज़रों से, कि उनके संदेह पर
सत्य का ठप्पा लग सके
जकड़ना चाहते हैं
प्रश्नों के ऑक्टोपस में उलझाकर
खड़े हो जाते हैं, दूर कहीं
कई प्रश्नचिन्ह उछाल
गले में फेंके फंदे की तरह
गोया कह रहे हों
'इतना बोलना ज़रूरी है क्या'

हैरान होती हूँ, ये देखकर
जब लोग कहते हैं
ये सब हमसे जुड़ा ही नहीं
यदि जुड़े ही नहीं, तो महसूसा कैसे ?
किसने ढलवाया, उन्हें अहसास बनकर ?
कैसे चढ़ गया उन पर शब्दों का कवच ?
कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में तो
जिया ही होगा तुमने इसे,
तभी तो भाव उपजे मन में संवेदना बन
और खुद ही बिखरते चले गये
अभिव्यक्ति की सहज स्याही में घुलकर !
और जो बिन अनुभूति ही कहते रहे हो तुम 
तो क्या अर्थ रह गया उसके कहने का ?

सोच की उड़ानें भी तो 'जी' लेना ही है
सपने, यथार्थ, जीवन, प्रेम, दुख, दर्द
मिलन, विरह, आशा, निराशा, विश्वास, धोखा
अनगिनत कितनी ही पीड़ा या सुख से
गुज़रते हैं सभी, अपनी-अपनी तरह
अकेले तुम ही नहीं हो, इसे झेलने वाले
ये सब हिस्सा हैं, हम सभी की ज़िंदगी का
अंतर है तो इतना ही, कि तुम कह सके
और इन पर गुजरती रही....!
तो फिर, किससे छुपाना और क्यूँ ?
जो हिम्मत नहीं, सच कह सकने की
तो न लिखो कुछ, वही बेहतर होगा !
पर ये न कहो मुँह छुपाकर, कि 'ये मेरा नहीं' !

स्वीकारो उसे शान से, बता दो सबको
'हम लिखते तभी हैं, जब वो छूकर गया है हमसे'
चाहे वो किसी का भी सच हो
पर जिया है हमने इसे ठीक अपनी तरह
वरना फ़र्क़ ही क्या रह गया, 'तुम' में और 'हम' में
और ये भी कह देना, उसी में जोड़कर
हाँ, मेरी आपबीती बताने में भी
मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं होती
जिसे नहीं भाता ये दो टूक सच,
वो या तो लिखना छोड़ दे या पढ़ना !

प्रीति 'अज्ञात'
ये कविता नहीं...सच है !

न जाने क्यूँ लिखा करती हूँ मैं
जो झूठ लिखूं तो लिखने का मतलब ही क्या
जो सच कहा, तो ढेरों सवाल होंगे
हाँ, जानना चाहते हैं सब
दूसरों के शब्दों के पीछे छिपा मर्म
समझ जाते हैं कुछ तो बिना कहे ही
और बाकी ताका करते हैं
सवालिया नज़रों से, कि उनके संदेह पर
सत्य का ठप्पा लग सके
जकड़ना चाहते हैं
प्रश्नों के ऑक्टोपस में उलझाकर
खड़े हो जाते हैं, दूर कहीं
कई प्रश्नचिन्ह उछालकर
गले में फेंके फंदे की तरह
गोया कह रहे हों
'इतना बोलना ज़रूरी है क्या'

हैरान होती हूँ, ये देखकर
जब लोग कहते हैं
ये सब हमसे जुड़ा ही नहीं
यदि जुड़े ही नहीं, तो महसूसा कैसे ?
किसने ढलवाया, उन्हें अहसास बनकर ?
कैसे चढ़ गया उन पर शब्दों का कवच ?
कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में तो
जिया ही होगा तुमने इसे,
तभी तो भाव उपजे मन में संवेदना बन
और खुद ही बिखरते चले गये
कलम की स्याही में घुलकर !
और जो बिन महसूसे ही कहते रहे हो तुम सब
तो क्या अर्थ रह गया उसके कहने का ?

सोच की उड़ानें भी तो 'जी' लेना ही है
सपने, यथार्थ, जीवन, प्रेम, दुख, दर्द
मिलन, विरह, आशा, निराशा, विश्वास, धोखा
अनगिनत कितनी ही पीड़ा या सुख से
गुज़रते हैं सभी, अपनी-अपनी तरह
अकेले तुम ही नहीं हो, इसे झेलने वाले
ये सब हिस्सा हैं, हम सभी की ज़िंदगी का
अंतर है तो इतना ही, कि तुम कह सके
और इन पर गुजरती रही....!
तो फिर, किससे छुपाना और क्यूँ ?
जो हिम्मत नहीं, सच कह सकने की
तो न लिखो कुछ, वही बेहतर होगा !
पर ये न कहो मुँह छुपाकर, कि 'ये मेरा नहीं' !

स्वीकारो उसे शान से, बता दो सबको
'हम लिखते तभी हैं, जब वो छूकर गया है हमसे'
चाहे वो किसी का भी सच हो
पर जिया है हमने इसे ठीक अपनी तरह
वरना फ़र्क़ ही क्या रह गया, 'तुम' में और 'हम' में
और ये भी कह देना, उसी में जोड़कर
हाँ, मेरी आपबीती बताने में भी
मुझे कोई शर्मिंदगी नहीं होती
जिसे नहीं भाता ये दो टुक सच
वो या तो लिखना छोड़ दे या पढ़ना !

प्रीति 'अज्ञात'

Friday, April 18, 2014

माँ के आँसू....

माँ के आँसू, कैसे समझें 
सुख में दुख में, ये गिरते हैं. 
बारिश के मौसम में बूँदें 
पतझड़ में पत्ते गिरते हैं. 

जब पहला 'शब्द' कहा कुछ हमने, 
या हम पहली बार 'चले' थे. 
स्कूल का 'पहला दिन' था अपना, 
या फिर कभी, 'ईनाम' मिले थे. 

माँ रोई हर उस इक पल में 
पूछा, कहा 'खुशी है ऐसी' 
समझ ना आया, कुछ भी हमको 
रोने की ये वज़ह है कैसी? 

जब भी कोई ग़लती करते, 
डाँट पड़े, या खाते मार. 
हम से ज़्यादा, खुद वो रोती, 
कहती ये मेरा अधिकार. 

जीवन की असली बगिया में, 
पाँव रखे, हमने जिस दिन. 
इंतज़ार वो तब भी करती, 
चिंता की घड़ियाँ गिन-गिन. 

लाख़ कहा उसको ये हमने, 
फिक्र हमारी क्यूँ करती हो? 
खुद का भी तुम,कभी तो सोचो 
मुफ़्त में ही आँखें भरती हो! 

सोचो, मेरी 'माँ' के आँसू 
उन लम्हों में भी, वो रो दी. 
'माँ' है तो दुनिया है सबकी 
'ज़िंदगी' वरना 'व्यर्थ' में खो दी. 

प्रीति 'अज्ञात'

यही वादा था, न .... !

आज वो अकेली है और कुछ अनमनी भी
देखा उसने खुद को दर्पण में
घबरा गई, अपने ही विकृत झुर्रीदार प्रतिबिंब से
तभी अचानक ही फिसलकर 
माथे पे गिरी एक लट
खुद को ही रंगे जाने की पुरज़ोर
सिफ़ारिश करने लगी.

ठीक ही तो कहता है वो
अब सपनों की उम्र नहीं तेरी
काँपते मन से, अचकचाकर
दौड़कर खोला है उसने
अपनी ख़्वाबों की अलमारी को
हर खांचा, खचाखच भरा हुआ
एक अधूरेपन की कहानी-सी कहता.

सबसे पहले फेंका उसने
'ज़िंदगी' का सपना
हाँ, यही स्वप्न तो जन्म-दाता है
आकांक्षाओं का, अपेक्षाओं का
फिर उछाल बाहर किए
झाँकते, मटमैले से, घिनौने सपने
जिन पर लगे हुए जाले और घूमती मकड़ी 
उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न-सा लगा
बरसों से भटक रहे हैं.

कर दी है, खाली उसने पूरी अलमारी
भर देगी फिर इसे छकाछक
कर्तव्यों की चादरों से
पर ये क्या, अभी भी कोने में
दूबका हुआ एक मायूस ख्वाब बैठा है
उसके सहमे हुए बचपन की तरह
जीना चाहता है, चीख रहा है
न निकालने की गुहार करते हुए.

जा, आज से तू
खबरदार, जो अब कभी पला
इन पलकों के भीतर
और फिर एक गुस्सैल-सी माँ की तरह
धक्के मारकर खींचती हुई
ले आई वो उस आख़िरी ख़्वाब को भी घसीटकर
धकेल दिया है उसे जबरन ही
उस गंदे, बदबूदार कचरे के डिब्बे में
कि वही उसकी सही जगह थी.

हाँ, अपने हाथ झाड़कर, 
डेटोल से धो भी लिए हैं उसने
उन मरते सपनों की
सड़न ही कुछ ऐसी थी
पर रो रही है, बेतहाशा
अपने इस 'ज़िंदा' बचपन की 
असामयिक मौत पर
जान जो चुकी है
हर उखड़ी साँस पैदा करेगी
शब्दों में ढली, चुभती इक टीस को
पर ये अलमारी अब यूँ ही
खाली रहेगी, उम्र-भर
ठीक उसके अचानक ही 
गंभीरता का जामा पहनाए गए
इस रंगहीन जीवन की तरह....!! 

प्रीति 'अज्ञात'