Thursday, June 27, 2019

स्त्री और प्रेम

जब भी लिखना चाहा प्रेम 
अचंभित हो पाँव पसारने लगी
अंतहीन उदासी
जब भी जीना चाहा प्रेम 
प्रतीक्षा जैसे ह्रदय पर जड़ें जमा 
लिपट गई अमरबेल की तरह
जब-जब आश्वस्ति होने लगी प्रेम पर 
तब-तब स्वयं को प्राथमिकता के 
सबसे निचले पायदान पर
दुविधा के रूप में ही खड़े पाया 
मेहंदी के सुर्ख पत्तों ने
स्वप्नों की नर्म क्यारियों में   
ज्यों ही रचानी चाही सूनी हथेली 
सारी रेखाएँ उसी क्षण 
उंगलियों से फिसल
दुर्भाग्य के हाथों अनाथ 
दम तोड़ती चली गईं 

नहीं लिखूँगी प्रेम 
नहीं जियूँगी प्रेम 
नहीं रंगनी ये हथेलियाँ भी
कि मरीचिका है प्रेम 
किसी रुदाली के स्वागत को 
बाँहें फैलाये आतुर
मायावी, शैतान बला है कोई  

अब मैं प्रतीक्षा की
सारी उदास चिट्ठियाँ
बेरहमी से हवा में उछाल
अपने ही सुरक्षित खोल में ठहर 
स्वयं ही बेदर्दी से कुरेद 
खरोंचने लगी हूँ
अपनी बची हुई लक़ीरें 
-प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, June 26, 2019

जाप जारी है....

न सभ्यता बदली 
न ही संस्कृति 
लेकिन इनके मायनों में
दिखने लगा है परिवर्तन  
और समाज के तो कहने ही क्या! 
इसका तो इतना हुआ है विकास
कि खून से लथपथ देह देखकर भी 
अब जी नहीं काँपता उतना 
हत्या, आगजनी और अपराध-जगत की हर ख़बर 
लगने लगी है बासी
किसी पुराने अखबार की तरह 
न जाने क्या सच है और कितना 
पर यह तो सिद्ध हो चुका कि
रिमोट ने आसान कर दिया जीना सबका 
तभी तो इन बजबजाती साँसों के साथ भी 
जारी है अनवरत ठहाकों का क्रम 
निगली जा चुकी सारी संवेदनाओं के मध्य
चबा-चबाकर खाये जा रहे हैं क़बाब 
अब जबकि ईश्वर भी लज्जित होता होगा
अपनी इस बदनामी पर
और लाशों के ढेर देख फफकता होगा रोजाना 
तब भी गली-चौराहों में
मर्यादा के पखेरू चिथड़ों के बीच 
मर्यादा पुरुषोत्तम का जाप जारी है....
- प्रीति 'अज्ञात' 

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