Thursday, November 6, 2014

सुबह... हुई है अभी!

एक सुबह हुई है अभी
रात की गुमसुम कलियाँ
खिलखिला रहीं बेवजह
चाँद भी बत्ती बुझा
सो गया पाँव पसारे
अठखेलियाँ करते थक चुके
टिमटिमाते सारे तारे
नर्म घास के बिछौने पर
खुद ही लुढ़क गया
ठहरा हुआ आलसी मोती
शरमाती हुई हौले-से
झांकने लगी लालिमा
या कि आती रश्मियों को देख
लजा रहा आसमाँ !

सारी उदासियाँ भूल
किरणों की सलाई पर
बुनने बैठा कोई
टेढ़े-मेढ़े, बेतुक़े ख़्वाब
पक्षियों की महफ़िल
कतारबद्ध हो सजने लगी
घर की छतों और
उन्हीं चिर-परिचित तारों पर
मुंडेर पर इतराती, फुदकती
विचारमग्न वही बुद्धू गिलहरी
तितलियाँ हो रहीं फ़िदा
अपने ही रंगीन नज़ारों पर.

अलसाई-सी सारी खिड़कियाँ
खुलने लगे ताले
चहारदीवारी को फलांगकर
गिरा आज का अख़बार
कल की बासी खबरों का
था कहीं आदतन, अदना-सा इंतज़ार.
मासूम बचपन लद गया वैन में
आँखों को खंगालता
काँधे पर ढो रहा भविष्य
शुरू होने लगी सड़कों पर खटपट
मंदिरों से बुलाती ध्वनि-तरंगें
कोई हाथ दुआ को उठता हुआ
दूर चिमनियों से भागा धुँआ सरपट.

दो अजनबी चेहरे आज भी
मुस्काये होंगे दूर से
सेहत की चहलक़दमी तले,
एक दर्ज़न ठहाके
लग रहे होंगे, उसी पार्क में
दुनिया चाहे कितना भी जले
रात से बेसुध पड़ी ज़िंदगी की
टूटी तंद्रा, बिखरा स्वप्न
दुकान के खुलते शटर की तरह
खुलने लगी असलियतें
ओह, वक़्त नहीं !
आज भी जल्दी में हैं, सभी !
क्या फिर से कर दी भविष्यवाणी
उसी शास्त्र-व्यापारी ने
सृष्टि के आख़िरी दिन की ?
खैर...उठना ही होगा
चलना ही होगा
एक और सुबह.....
..........हुई है अभी !

- प्रीति 'अज्ञात'

चित्र - गूगल से साभार
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