Thursday, January 30, 2014

ग़ज़ल

रहता है यूँ तो मुझमें ही कहीं
पर आजकल तू, दिखता ही नहीं।

जिसकी चाहत में मर-मिटी दुनिया
वो 'काफ़िर' बाज़ार में, बिकता ही नहीं

तन्हाई में पलकों से गिरा देता है,
दुःख-दर्द अपने, लिखता ही नहीं।

ये कैसी मजबूरियाँ है इश्क़ की,
और गहराता है, मिटता ही नहीं।

जमा बैठा है रगों में सहमा हुआ
लहू अब किसी का, रिसता ही नहीं

हक़ीक़त से रूबरू हुआ, मर गया,
ख़्वाब इन दिनों कोई, टिकता ही नहीं।

प्रीति 'अज्ञात'

Sunday, January 26, 2014

मैं कहीं हूँ ही नहीं...

मैं कहीं हूँ ही नहीं, 
न दिल में , न ख्यालों में
न बातों में, न जज़्बातों में
न दोष दूँगी तुझे तन्हाई का
मैं खुद ही कहाँ अपने साथ हूँ.

दर्द में जो अक़्सर बरसती हैं
बीते लम्हों को जो तरसती हैं 
गिरा करती हैं अब बे-वजह भी
बस वही बे-मुरव्वत बरसात हूँ.

जमाने की चालों से डर गया
कोई कहीं जीते-जी मर गया
थामा होगा किसी मजबूरी में
छूटा हुआ वही अजनबी हाथ हूँ.

शुरू हुई थी जो मचलकर कभी
निकली है ज़ुबाँ से संभलकर अभी
जो तुम कहकर भी पूरी न कर सके
छटपटाती हुई वही अधूरी बात हूँ....

प्रीति 'अज्ञात'

मेरा शहर



कंपकंपायी जब धरतीतो मानो
फट पड़ा आसमाँ ही
और देखा मैंने मौत को
बेहद क़रीब से.
बख़्श दिया उसने मुझे
शायद मरा समझकर
पर जी न भरा उसका
तब ही तो, आगे बढ़ चली.

पलक झपकते ही जैसे,
बदल गईं सारी तस्वीरें
अब वो  मौज़ूद थी,हर जगह
किसी खिड़की पर लटकी हुई
कहीं दीवारों में धँसी हुई
फटी आँखें देख पा रही थीं
टुकड़ा-टुकड़ा ज़िंदगी
पत्थरों में दबी हुई.

धीरे-धीरे घुटती गई आवाज़ें
थम गया आर्तनाद भी
जमा होते रहे शरीर
परत-दर-परत, मलबा बनकर
चहुँ ओर सिर्फ़ मौन
कुछ बेबस, स्तब्ध आँसू भी
हर चेहरा सिर्फ़ मातम से सना था
'मौत' का तांडव ही ऐसा घना था
हाँ, आज मेरा शहर श्मशान बना था...!

प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, January 23, 2014

कौन हूँ मैं...

मैं कौन हूँ
मेरा उठना-बैठना
खाना-पीना, रहन-सहन
बातचीत का तरीका
स्वभाव,शिक्षण,व्यवसाय
विवाह की उम्र
शिष्टाचार,जीवन-शैली
यहाँ तक कि
मौत के बाद की
विधि भी,
सब कुछ तय है
मेरे जन्म के समय से.

पैदा होते ही तो लग जाता है
ठप्पा उपनाम का
जुड़ जाता है धर्म 
अब नाम के साथ ही
और उसी पल हो जाती है
सारी राष्ट्रीयता एक तरफ.
आस्था हो, न हो
विश्वास हो, न हो
पर समाज इंसान को जाने बिना ही
निर्धारित कर लेता है
उसके गुण-अवगुण,
चस्पा कर दी जाती हैं
उसके व्यक्तित्व पर
कुछ सुनिश्चित मान्यताएँ.

सीमाएँ लाँघने पर उठा करती हैं
एक साथ कई निगाहें
फिर समवेत स्वर में उसे
नास्तिक करार कर दिया जाता है,
उन्हीं लोगों के द्वारा
जिन्होंने संकुचित कर रखी है
अपनी विचारधाराऔर
अपने धर्म की परिधि के भीतर ही
ये बुहारा करते हैं अपना आँगन 
सँवारते हैं रोज ही उसे
गीत गाते हैं मात्र उसी के हरदम.
धर्म-विधान के नाम पर
हो-हल्ला मचाते
तथाकथित संस्कारी लोग
रख देते हैं अपनी भारतीयता 
ऐसे मौकों पर,कहीं कोने में.

राष्ट्र-हित की बातें करने वालों ने
बो दिया है बीज
तुम्हें खुद ही तोड़ने का
और हो गये हैं सभी सिर्फ़
अपने-अपने धर्म के अधीन.
तो फिर स्वतंत्र कौन है ?
मैं कौन हूँ?
तुम कौन हो?
जो वाकई चाहते हो स्वतंत्रता
तो तोड़ना होगा सबसे पहले
धर्म और प्रांत का बंधन.

ईश्वर एक ही है
मौजूद है, हर शहर, हर गली
हर चेहरे में,
हटा दो मुखौटा
और देखो
एक ही खुश्बू है
हर प्रदेश की मिट्टी की
हरेक घर का गुलाब 
एक सा ही महकता है
महसूस करना ही होगा
हमें ये अपनापन,
तभी पा सकेंगे,
दंगे-फ़साद, आगज़नी-तोड़फोड़
सारी अराजकताओं से दूर
एक स्वतंत्र-भारत !

प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, January 15, 2014

वो ज़िंदा है.....

सुना करती है रोज ही
झिड़कियाँ, ताने-उलाहने
उन्हीं अपनों से, जिनका साथ कभी
दंभ का कारण हुआ करता था.
मखौल बनता है लोगों में अब
उसके संवेदनशील मन का.
छोटे गाहे-बगाहे अहसास
करा ही देते हैं उसके
अनपढ़, गँवारपन का
बड़ों को मिला है, हर अधिकार
उसके आत्म-सम्मान के हनन का.

कोसी जाती है, हर वक़्त
उसकी बदसूरती, अपंगता
मित्र-सखी नहीं हैं साथ अब,
उसकी भावनाओं का
सब अपनी सुविधा से
इस्तेमाल किया करते हैं.
खेलते हैं, स्वार्थ का खेल
और फिर कुचलकर रख देते हैं
हर एक ख्वाहिश उसकी.

वो नादान नहीं
सब समझती है
पता है उसे बरसों से,
क़ि एक कूड़ेदान सी ही
हैसियत रही है उसकी
जहाँ हर कोई आता-जाता
डाल दिया करता है कचरा.

और जब भर जाता है, ऊपर तक
तो छलक ही पड़ता है
वही उसकी ज़ुबान से
और चुभती है तब खुद की ही
कही गई हर बात
उन्हीं लोगों की निगाह में.
नहीं होती बर्दाश्त उनसे
अपनी ही भरी ये गंदगी.

चल रहीं हैं साँसें फिर भी
बेशरम सी उसकी
मुस्कुराती है वो अब भी.
अंत: स्वीकारना ही पड़ा उसे
अपना ज़िंदा रहना
सबके लिए मात्र
एक विदूषक बनकर.

प्रीति 'अज्ञात'

तुम इंसानों की बस्ती में...

तुम इंसानों की बस्ती में
सब कुछ बिकाऊ है
लगता है बाज़ार रोज ही
रिश्तों की सब्जी-मंडी का
जहाँ तौला जाता है
हर एक रिश्ता;
मोल-भाव किया जाता है
उससे होने वाले ऩफा-नुकसान का,
तय की जाती है
संभालकर रखने की 
एक निश्चित अवधि.

मात्र कोरा विश्वास या 
चाहत ही नहीं रही, किसी के
संरक्षित रहने का मापदंड.
कई मर्तबा रोज ही दिखने वाली
और आसानी से उपलब्ध वस्तुएँ भी
कोफ़्त-सी पैदा कर देती हैं
और उन्हें उठा बाहर फेंकने में
ज़रा भी नहीं हिचकता
वही खरीददार
जिसने खुद ही बड़े जतन से
कभी उसे सहेजकर रखा था.

दिल, मोहब्बत, प्यार-व्यार
भरोसा, साथ, वक़्त, जज़्बात,
भावनाएँ, उम्मीदें, समर्पण
सब कौड़ी के मोल बिकते हैं यहाँ,
खरीद लेते हैं आकर इन्हें
अक़्सर ही संवेदनशीलता का
चोगा ओढ़े, बुद्धिजीवी वर्ग के
कुछ मौका-परस्त लोग
और उछाल देते हैं, जी चाहे जहाँ.
गिर चुकी है कीमत आत्मा की
बोली लगती है परमात्मा की
हाँ, बिकने लगी है अंतरात्मा भी अब
तुम इंसानों की बस्ती में......

प्रीति 'अज्ञात'


Monday, January 13, 2014

न आओ इधर......


न आओ इधर, जख्म फिर से हरे होंगे 
तुम्हारी मखमली राहों में,काँटे कितने गड़े होंगे. 
 
है प्यासा राही, पानी जो तलाश करता है 
कहो उसे, कि रास्ते में सिर्फ़ टूटे घड़े होंगे. 
 
हर तरफ छाया ही पाओ, ये मुमकिन है कहाँ 
कहीं तो शाख से, कुछ पत्ते भी झड़े होंगे. 
 
संभल के चलना ,माँस के उन टुकड़ों से 
इंसान बन, खुशी में तुम्हारी, जो अड़े होंगे. 
 
आज तुम साथ हो, कल का सच तुम्हें क्या पता 
तुम्हें तलाशने में, मुक़द्दर से कितना हम लड़े होंगे. 

गमगीन रहने में, हर वक़्त, किसको मज़ा आता है 
पर कुछ तो सोचकर ही विधाता ने, इन आँखों में आँसू जड़े होंगे. 

प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, January 9, 2014

अनुपम पल....

कितना मनोहारी होता है....
दिनकर की किरणों संग
सूरजमुखी का खिल जाना,
सर्दी में उन्मुक्त हो
हरसिंगार का बिखर जाना,
जूही की बेल का
तने से यूँ लिपट जाना,
और मुंडेर पर बैठी चिड़िया का
सुबह-सुबह चहचहाना.

अच्छा लगता है.......
समुद्र-तट पर लहरों का
बेताबी से टकराना,
दूर कहीं क्षितिज पर
ज़मीं-आसमाँ का मिल जाना,
सूरज के छुपते ही
चंदा का मचलकर आना,
और अमावस की रात में
सप्त-ऋषि का टिमटिमाना. 

सुकून-सा मिलता है......
देख गिलहरी का
कुतुर-कुतुर करके खाना,
और चोंच डुबोकर,चिड़िया का
प्यार से पानी गटक जाना.
सच,प्रकृति के आँचल में
कितने अनुपम ये पल हैं!
पर इन सबका संगम है
'तेरा हौले से मुस्काना'.

प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, January 8, 2014

रिश्तों के समीकरण


 
'रिश्तों के समीकरण', बेहद पेचीदा 
उलझे-उलझे से, उस 
पाइथागोरस प्रमेय की तरह, 
जिसे समझा तो सबने
पर संतुलित कर पाना 
हरेक के बस की बात नहीं.

लाख कोशिशों के बावजूद भी
नहीं होता आसां,
हर एक पक्ष को उसकी
अहमियत का एहसास दिला पाना,
और कोई न कोई, नाखुश हो
बिगाड़ ही देता है
मन-मस्तिष्क का संतुलन.

पुन: नये सिरे से समझकर
सुलझानी पड़ती है, हर बिगड़े
हिस्से की उलझन
कि क्षतिग्रस्त हुए बग़ैर ही
संरक्षित रहे सबका मूल रूप.

क्यूँ न खुद ही
तोड़ दें सभी, व्यर्थ की
आकांक्षाओं के सारे बंधन
न करें कुछ भी अपेक्षा.
समझकर तो देखें कभी
दूसरे पक्ष की महत्ता भी,
स्वयं की खुशियों का विभाजन कर.
और फिर जोड़ दें इसमें
उम्मीदों के बहुगुणन से उपजे
खुशियों के वो तमाम पल.

निकाल बाहर फेंकें
हर अवांछित स्वार्थ.
शून्य कर डालें
अपना सारा वज़ूद,
तब कहीं जाकर
संतुलित हो पाएगा;
जीवन का हर
जटिल समीकरण.

प्रीति 'अज्ञात'

Tuesday, January 7, 2014

तेरे चले जाने के बाद....


तेरे चले जाने के बाद                      
बैठी रही मैं यूँ ही
बहुत देर तक
अवाक, हैरां, हतप्रभ.
क्यूँ न कह सकी मैं
वो सब कुछ,
जिसे तुम तक पहुँचाने के लिए
मन-ही-मन 
न जाने कितनी 
कहानियाँ गढ़ी थीं मैंने.

तेरी आँखों में छिपी हर हसरत,
दर्द में डूबा हर एहसास,
जख़्म कुरेदती हर मायूसी
खुद-ब-खुद
पहुँचती जा रही थी, मुझ तक.
और ये डर भी 
भाँप लिया मैंने,
कि कहीं पढ़ न लूँ
मैं तेरे मजबूर चेहरे को;
जहाँ सब कुछ
असामान्य होते हुए भी
एक अनजाना-सा
ढोंग रच रहे थे तुम.

सो रहने दिया मैंने भी
मुस्कुराकर, यथावत ही
तेरी नज़रों का 
हर वो भरम,
कि जी सकें हम दोनों ही
अपनी तथाकथित 
निर्दोष 'ज़िंदगानी'
और सुलझ सके हर उलझन
इस नाज़ुक-सी डोर की.

पर दिल तो फिर भी 
भरा जा रहा था
अंदर-ही-अंदर
अपनी ही जन्मी चीत्कारों से,
ढाँढस दे रही थी बेबसी
सपनों की टूटी
उन सारी अपाहिज दीवारों से,
सुबक रहे थे कुछ लम्हे भी
मलबे में कहीं मुँह छुपाए.
शब्द सारे बह गये
बन अश्रु-धार,
हाँ, उसी कोरे काग़ज़ पर,
जहाँ तेरी-मेरी कहानी
लिखी जानी;
अभी बाकी थी.........!

प्रीति 'अज्ञात'

Friday, January 3, 2014

अधूरा सा ख़्वाब.....


हर इक ख़्वाब अब, अधूरा सा लगता है 
दिल का वही कोना आज फिर, टूटा सा लगता है.
अपना समझ सहेजते रहे, उम्र भर जिसको 
वही रिश्ता अब हाथों से, छूटा सा लगता है. 

शहर में आए हैं यूँ तो, पहले भी कई दफ़ा 
इस बार ही सब कुछ, अजूबा सा लगता है.
दिन भी वही है और रातें भी पहली सी हीं
फिर क्यूँ हर लम्हा, अछूता सा लगता है. 

वो आसमाँ के जगमगाते-रोशन सूरज, 
मैं ज़मीन से टिमटिमाती-बुझती इक लौ. 
उन तक पहुँच पाने का ख्वाब; हाँ ख़्वाब है
पर दिल को बेहद, अनूठा सा लगता है. 

एक अरसा हुआ खुशी का हिसाब लगाए, 
एहसास आज भी ये हमसे, रूठा सा लगता है. 
अपने वजूद को तलाशते; आईने से मिले जब हम, 
देखा किए तो 'अक्स' भी अपना, झूठा सा लगता है. 

प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, January 2, 2014

थके सपने


दिल की गहराइयों में उतरकर जो 
बैठे थे कहीं,
आज उन शब्दों को हम अपनी 
ज़ुबान देते हैं. 

एक वो हैं, जो कह न सके 
कुछ भी हमसे,
हर एक सवाल पे बस; फीकी
मुस्कान देते हैं. 

करें अब क्या गिला, और कैसी 
शिकायत उनसे,
वो तो बातों में हमें, ये दुनिया 
भुला देते हैं. 

है मिली,एक सी ज़मीं और 
एक ही आसमाँ सबको,
ये तो हम पर है, कि हम किससे
क्या लेते हैं. 

न हो हश्र; इस दिल का वो 
पहले सा कहीं,
डर-डर के हम अपने, पंखों को 
उड़ान देते हैं. 

न जाने खुद से क्यूँ हारे हुए;
लगते हम हैं,
सपने भी आके अब, बेहद 
थकान देते हैं..... 

प्रीति 'अज्ञात'