Tuesday, December 31, 2013

ग़ज़ल


कुछ तो है कहीं, ये जो थोड़ा प्यार सा है
नशा है तेरा, चाहत या इक ख़ुमार सा है.

मिला करता है मचलकर रोज ही तू मुझसे 
रहता बेवक़्त फिर भी तेरा इंतज़ार सा है.

न बीता कोई भी लम्हा इस तरह पहले 
जिस तरह दिल अब मेरा बेक़रार सा है.

महसूसा तुझे मुझमें ही कहीं हर मर्तबा
बहता मेरी रग-रग में तेरा दीदार सा है.

छू गयी आकर कुछ ऐसे ये दस्तक तेरी
इन साँसों में ही इस जीस्त का दरबार सा है.

तू ही सुकून, है ख़्वाहिश, चैनो-अमन मेरा
मेरी हर नब्ज़ को समझता चारागार सा है.

प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, December 26, 2013

हो सके तो.....


बीता ये वर्ष भी
ठीक उसी तरह
जैसे कि हर बार
बीतता आया है.
वही विश्वासघात,
थोथी मानसिकता,
घिनौनी सोच,झूठा अपनापन
नक़ली रिश्ते, खोखले वादे 
और स्वार्थ-सिद्ध होते ही
जहर उगलते लोग.

मर-मर के देते रहे
साथ जिनका
हाथ उन्हीं ने झटका
सबसे पहले.
आरोप-प्रत्यारोप में
कुचलता गया हर एहसास,
बदल गये रिश्ते,
उखड़ने लगी आवाज़ें,
उलाहने, ताने, बेबसी
और आहत, व्यथित मन.

प्रण इस बार भी वही
कि अब ना करेंगे
किसी पर कभी विश्वास
पर ये भी खबर है
होगा फिर यही सब कुछ
शायद नये रूप में
क्योंकि नहीं ढाल पाए
खुद को, जमाने के रंग में
हम समझ सके
न ही औरों ने कोशिश की.

पर आज फिर से सुनो
जो कहा है, अब तक
सच्चाई से भला, तुम सब
मुँह मोडोगे कब तक ?
एक ही ज़िंदगी है, जो
फिसल रही है, शनै:-शनै:
अपने अंतिम पड़ाव की ओर.
हो सके, तो जी लो इसे
वरना यूँ ही गुजर जाएगी,
ये भी..................हाँ,
ठीक तुम्हारी-मेरी तरह....!

प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, December 19, 2013

ग़ज़ल

धड़कनों ने साँसों को करके ग़ुलाम भेजा है
ज़िंदगी संग मौत का ये पैग़ाम भेजा है

थक गये करते-करते जी- हज़ूरी दुनिया की
आज हमने खुद से, खुद को सलाम भेजा है.

इक उम्र होती है यादों की भी, कब तक जिलाते उनको
अब इक लिफ़ाफ़ा तेरे शहर से, अपने नाम भेजा है.

है रात काली और साया भी गुमशुदा सा हुआ 
ख़ुदा तूने साथ में ये कैसा, इंतजाम भेजा है

.है मतलबी सब लोग, साथ वक़्त के  बदल जाते हैं
इस हक़ीक़त को बताकर मुझे, किस्सा तमाम भेजा है.

इस मुफ़लिसी में अश्क़ तो चुपचाप बस गिरते रहे
अपनी दुआ का फिर भी उन्हें,देखो ईनाम भेजा है. 

ना मानी हार, थे गुमनाम पर ज़िंदा अभी
हैं ख़ुशनसीब जो तूने ही मेरा क़त्ले आम भेजा है.

प्रीति अज्ञात'

सच कहना !


मत देखना तुम मुझे अब कभी पलटकर
कि नहीं देख सकोगे, मेरे चेहरे की ये उदासी
रख लेना जोरों से हाथ अपने कानों पर,
जो कभी आहट सुनो, आने की तुम ज़रा-सी.

झटक देना सर अपना, जब बनने लगे
आँखों में बीते लम्हों की तस्वीर्रे
नहीं बदल सका है कोई चाहकर भी 
हाथों की लकीरें और बेबस तक़दीरें.

कोई प्यार से पुकारे, न सुनना उसे भी

मेरा नाम तक जेहन में न आने देना
यादों का क्या, मुफ़्त ही मिल जाती हैं
भुला दो हँसकर, बस दिल तक न जाने देना.

हाँ, कह दो अब अकड़कर कि ये तो तुम

बड़ी ही आसानी से कर पाओगे
पर सच कहना, क्या तुम भी फिर
मेरी ही तरह यूँ घुट-घुटकर न मर जाओगे ?

प्रीति 'अज्ञात'

Tuesday, December 10, 2013

कुछ यूँ भी.....

ये दिखता कठोर है
पर है मुलायम
चीरा जा सकता है
इसे बेहद आसानी से.
ज्वलनशील है
पानी में मिलते ही.
लगता तो है,
बड़ा चमकीला और साफ
पर ज़्यादा रोशनी में
खो देता है अपनी चमक
दिखता है तब फ़ीका सा
उदासी की रंगत लिए हुए.

उबलने में लेता है
बहुत ही वक़्त
पर पिघल जाता है 
बिल्कुल आसानी से.
ज़्यादा उपयोग से
डर है, रक़्त-चाप के
बढ़ जाने का
संपर्क में आने पर
साँस लेना ही मुश्किल
जो मिली नज़रें, तो
ख़तरा है, कि फिर कभी
कुछ दिखाई ही  दे,

उत्तम संचालक है
ऊष्मा और विद्युत-तरंगों का
इसलिए ही तो
देता है रोशनी, हर घर में.
परोपकारी इतना कि
रासायनिक-प्रक्रिया के दौरान
'बॉन्ड' बनाने के लिए
दे देता है ये अपना 
'नकारात्मक-आवेश' भी
खुश होकर.
कहीं इसे "दिल" तो
नहीं समझ बैठे आप ?
या ख़ुदा ! ये तो
"सोडियम'' के 'भौतिक-गुण' हैं...

प्रीति 'अज्ञात' @ :)

Monday, December 9, 2013

माँ

स्कूल के दिनों में कभी लिखी गयी ये पंक्तियाँ, आज अचानक ही डायरी में मिल गईं. पढ़कर बहुत हँसी भी आई. 'माँ' पर लिखने को कहा गया था, और मैंने ये लिखा.....

     ** माँ **

नहीं कहती वो कभी भी,कि -
टी. वी. देखो ज़रा पास से
और आज स्कूल मत जाओ
बाहर निकलो ठंड में, बिना जैकेट
और आज मत नहाओ
पाल लो आवारा कुत्ते और बिल्ली
और उनके साथ खेलने जाओ
हाथ धोना ज़रूरी नहीं बिल्कुल 
और चलो,पलंग पर बैठकर खाओ !

वो तो कहती है-
आँखें दर्पण हैं जीवन का
ख्याल रखा करो तुम इनका
शिक्षा देन है संस्कृति की
बनो तुम भी जगमगाता सिक्का
सफाई का रहे पूरा ध्यान
और रहो हर मौसम में ज़रा संभल के
पर देना ना भूलना कभी
सभी को उनके हक़ का पूरा हिस्सा.

उसे मालूम है, सब कुछ -
ये जीवन उसने ही तो दिया है
संवारना बस उसे ही आता है
जीते रहें हम बेफिक्री से और 
दर्द उसके आँचल में समा जाता है
काम के बोझ से थककर, ख़ुदा ने सोचा
मेरी बीमारी में कौन देखेगा ये दुनिया
चलो, सबको एक-एक 'माँ' देने में
मेरा भी कुछ नहीं चला जाता है.

प्रीति जैन
कक्षा-९

Sunday, December 8, 2013

हाँ, मैं ऐसी ही हूँ.....


हाँ, मैं ऐसी ही हूँ
झुक जाया करती हूँ
अक़सर ही, अपनों की ख़ातिर
मना ही लेती हूँ अपने
उन रूठे रिश्तों को
माँग लेती हूँ माफ़ी हाथ जोड़
कि छोड़ो, जो हुआ सो हुआ.
नहीं होने पर कोई भी ग़लती
मनाया है तुम्हें, ये सोचकर
कि मेरी खामोश उदासी 
तुम्हें कितना दुख देगी.
देती हूँ सफाइयाँ
औरों की तरफ से
कि तुम मायूस न रहो.

सींचा है मैंने भी
अपनी प्रेम रूपी बगिया को
विश्वास और स्नेह-जल से.
नहीं खड़ी कर पाई मैं
अहंकार की दीवारें
और उसूलों की छत
क्योंकि खाली कमरे में 
दम घुटता है मेरा.
नहीं पहचान पाती अब भी
नक़ाब में छुपे चेहरों को
दिल के रिश्तों में अक़सर
हार ही जाया करती हूँ मैं.

सबका दोषी बनने के बाद
चली तो जाऊंगी मैं इक दिन.
पर याद रखना, तुम सब फिर
रोओगे चीख-चीखकर मेरे लिए
नहीं आ पाऊँगी, मैं तब
चाहकर भी....
पोंछने तुम्हारे आँसू
पर दुख न करना, और
उसी वक़्त, उठाकर देख लेना
मेरी इस तस्वीर को
मैं तब भी, तुम्हें
यूँ ही मुस्कुराती मिलूंगी....

प्रीति "अज्ञात'

मध्यांतर



एक वक़्त था, जब...
पौ फटते ही
सुनाई देती थी
मुर्गे की बांग
मस्जिद की अजान
चिड़ियों की चहचहाहट
दूधवाले की साइकिल की घंटी
नल से गिरते पानी की आवाज़
रेडियो सीलॉन पे बजता साज़.
दौड़कर लपका करते थे
अख़बार को,
दालान में गिरते ही
और छीन लेते थे,
अपना-अपना पन्ना
सब्जी वाला ही सुना देता था
शहर का सारा हाल
घर में नये सामान के आते ही 
छा जाता था उत्सव
और बाँट आते थे मिठाई
सबको उसका किस्सा सुनाकर.

यूँ तो बहुत दौड़-भाग थी तब भी
लेकिन फिर भी सुकून था कहीं
और अब ?
अब तो.....
मोबाइल ही जगाता है
सुबह-सुबह, एक निश्चित ध्वनि से
चिड़ियों की मधुर वाणी
घुट रही है बंद खिड़की के बाहर
दूध भी वसायुक्त, और वसामुक्त
हो चला है, पॅकेट का
पानी संरक्षित है, बोतलों में
टी. वी. दिखा देता है
कुछ अख़बार और कुछ 
बेकार की खबरें
मिठाई अब न बँटती न
खाई जाती हैं.

कुकर की बजती सीटी के साथ
होता है दिन का आगाज़
सब्जियों को काटते हुए
तय हो जाती है पूरी दिनचर्या
चलता है दिमाग़, एक साथ
न जाने कितनी जगहों पर
इस बीच घनघना उठता है,
कई बार फोन भी, जो
जीवन का सबसे अहं हिस्सा बन
थमा देता है, अपनी मर्ज़ी से
कभी उम्मीद, कभी मायूसी.

हाँ, चल तो रही है, 'ज़िंदगी'
उसी दिनचर्या से.
सूर्योदय भी वही है
और सूर्यास्त भी
दिखाई देती हैं, पौधों में
अब भी कलियाँ
फूल भी खिल रहे हैं
वही पहले की तरह
पर फिर भी कोई
बुझा-बुझा सा है
क्योंकि बदल गया है अब
इन सबके बीच का
'वो पहले सा समय'.

प्रीति 'अज्ञात'

Friday, December 6, 2013

तेरी-मेरी बातें....



उफ्फ, मेरे स्नेहिल हृदय
क्या हो गया है रे तुझको !
क्यूँ अब तुम खुद से ही खुद को
छुपाए फिरते हो ?

ये चुप्पी कैसी है पसरी
तेरे - मेरे दरमियाँ
कि अब तो ख्वाब में भी तुम
मुँह फुलाए मिलते हो !

है नाराज़गी, मुझसे तेरी 
या मायूसी छाई बस यूँ ही
जो पागलों से तुम यूँ
बौखलाए फिरते हो !

कभी सोचूँ, क्या पता
छेड़ रहे हो मुझको
और बेवजह ही बनके
इतराए फिरते हो !

हटो, छोड़ो ना !
क्या अब डरना,
मेरे ख्वाबों से
ये तो बस लम्हे हैं
हंसते हैं हम, जी लेते हैं
नहीं होंगेकभी ये सच
पता है ना तुम्हें
फिर यूँ ही मुफ़्त में क्यों
सकपकाए फिरते हो !

आओ ना, बैठो मेरे पास
वो पहले की तरह
बनो सुगंध धड़कनों की
अब सुमन की तरह
कहानी 'एक ही तो है'
कहाँ 'तेरी' या 'मेरी'
फिर क्यूँ इस राज़ को
दिल में दबाए फिरते हो !

ए-मेरे स्नेहिल हृदय
समझो ना, जो है मैने कहा
हमारे बीच अब,गैरों सा तो
कुछ भी ना रहा
यक़ीन नहीं तो, देखो इधर
अब बोलो ना मुझे 
निगाहें फेर के क्यूँ
मुस्कुरा फिरते हो !

प्रीति 'अज्ञात'

Tuesday, December 3, 2013

मिलना तो मेरा तय ही है, तुमसे.....



मिलना तो मेरा तय ही है, तुमसे
इस बार नहीं, तो ना सही
अगले जन्म में,फिर लौटकर मैं आऊँगी
पसर जाऊंगी, बिन बुलाए ही
सर्द से उस मौसम में
तेरे आँगन की धूप बनकर
या बरस जाऊंगी कभी
बारिश के चमकीले मोतियों में ढलकर
हो सका तो वृक्ष ही बन जाऊं, कभी
तेरे उस पसंदीदा गुलमोहर का
जिसे रोज ही देखने का मोह
तब भी ना छोड़ पाओगे तुम
बैठोगे कुछ पल तो मेरे साथ
यूँ कहने को, बैरी दुनिया के लिए
बस वहाँ सुस्ताओगे तुम.
क्यूँ ना बनू मैं 'सूरजमुखी'
जो खिल जाए, रोज ही तुम्हे देखकर
या कि बन छुईमुई, लजा के कभी
खुद ही में सिमट जाऊंगी
ओढ़ा दूंगी आवरण, तेरे दुखो को
बादलों सी छाया बन
और नदिया सी बह, तेरे आँसुओं को
खुद में ही समा ले जाऊंगी
भर दूँगी हर रंग तेरे जीवन में
सदियों के लिए
चाहत की गर्मी से अब
हर गम तेरा पिघलाऊंगी
ए मीत मेरे, ये प्रीत तेरी
सदियों से है, सदियों के लिए
यूँ अभी जाना तय है मेरा,
बस साथ हूँ, कुछ पल के लिए
है ग़म तो बस यही, कि ये दम
तेरे पहलू में ही निकले, तो बेहतर होता
ना होता कुछ भी पास हमारे 
बस इक पल को ही सही
पर साथ ये मुक़द्दर होता
ना करना तू अफ़सोस, इस जमाने का
इसका तो काम ही है, आज़माने का
पर वादा है मेरा, अब भी तुझसे
बन हर रंग तेरे जीवन का
इंद्रधनुष सी तेरे आसमान पर छा जाऊंगी
मिलना तो मेरा तय ही है, तुमसे,और तब
तेरे कहने से भी, वापिस नहीं फिर जाऊंगी.

प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, November 30, 2013

रेगिस्तान.....


 कहाँ टिक पाता है, कोई 
भीड़भाड़ वाले माहौल में  
ज़्यादा देर तक. 
इक बेचैनी सी  
होने लगती है 
और घुटता है दम 
लड़खड़ातीं हैं साँसें
छटपटाता है मन

और तड़प उठता है,दिल
तलाशने को एक ऐसी जगह
जहाँ जीने के लिए शर्तें न हों
न ही सीमाओं का डर हो
कि जिनको लांघ पाने का भय
मार देता है, जीते जी ही.

जीवन के कटु सत्य
दिलवा ही देते हैं
तिलांजलि, हर रिश्ते की
और रह जाती है
एक कसक बन
कुछ यादें और उम्मीदें
जिन्हें बीच राह ही
मायूस होलौट आना
पड़ता है.

उस वक़्त 
याद आता है 
वो रेत का समंदर
जहाँ मीलों दूर 
एक चेहरा तक नज़र 
नहीं आता. 
पर फिर भी मिलता है 
बेहद सुकून, अपनापन 
उस एकाकीपन में ही. 
एक रिश्ता सा जुड़ गया हो ज्यूँ 
हाथों से फिसलती  
रेत के साथ 
जिसे मुट्ठी में थामने की  
हर अधूरी कोशिश, 

मुँह चिढ़ाते हुए  
बयाँ करती है 
नाक़ाम रिश्ते की 
एक-एक कमजोरी
और उसी के बनते-बिगड़ते टीले
अहसास दिलाते हैं 
स्वप्न-महल के,अनायास ही 
टूटकर बिखर जाने का

चमचमाती रेत,  
साक्षी हुआ करती है 
जीवन के खूबसूरत पलों की. 
एकांत, सुलझाना चाहता है 
कई अबूझ पहेलियाँ 
और मृगतृष्णा याद दिलाती है 
अंजान लम्हों की तलाश में भटकते 
इस पागल मन की. 
यादों का अंतहीन 'रेगिस्तान' 
रोज ही सुनाता है, यूँ तो 
वही एक सी कहानी  
कहने को वहाँ जाकर  
हम सभी हो जाते हैं 
दुनिया से एकदम अलग 
लेकिन पा लेते हैं, ख़ुद को
अपने-आप के 
बेहद करीब ! 
प्रीति 'अज्ञात' 

Friday, November 22, 2013

क्या मिला संघर्ष से...??



कितने वर्षों से जुड़ी हूँ 
अपने इस संघर्ष से. 
छू भी ना पाया, जो था चाहा 
क्या हुआ, उद्देश्य से ? 

खुद की ही,खुद से लड़ाई 
जीत हो या हार हो. 
क्या पड़ेगा, फ़र्क अब? 
कोई भी कारागार हो !! 

मेरे होने का क्या मतलब, 
अब तलक, जाना नहीं ! 
नगमों का हर, लफ्ज़ साथी 
कोई भी ज़ुर्माना नहीं ! 

आज अपने युद्ध से ही, 
हो रही हूँ, मैं अलग ! 
ना पूछना, ऐ 'ज़िंदग़ी'अब 
क्यूँ,हो रही हूँ, विलग!! 

 प्रीति'अज्ञात'

Thursday, November 14, 2013

जीते-जी ना जान सके जो

जीते-जी ना जान सके जो
वो मरने पे क्या जानेंगे

एक मिनट की चर्चा होगी

बस दो पल का ही मौन रहेगा
सोच ज़रा मन मेरे तू अब
सच में तेरा कौन रहेगा
पल में नज़रें उधर फेरकर
वो दुनिया नई बसा लेंगे
जीते-जी ना.........

है इस जग की ये रीत यही

दुर्बल की हरदम हार हुई
कड़वी-छिछली इस बस्ती में
झूठों की जय-जयकार हुई
सच्चाई की क़ब्र खोदकर
सब तुझको उसमें गाड़ेगे 
जीते-जी ना......... 

दर्द भरा है सबका जीवन

दर्द ही सबने बाँटा है
चार पलों की खुशियाँ देकर
बस थमा दिया सन्नाटा है
अपनापन भी दे न सके जो
फिर उनसे हम क्या पा लेंगे
जीते-जी ना..........


जिसको अपना तूने समझा 
सब कुछ तो तुमने वार दिया
कैसे चुनकर उन 'अपनों' ने
अब तुझको ही दुत्कार दिया
बीच भंवर में झूले नैया
और ख़ुद ही हम डुबा लेंगे
जीते-जी ना.........

एक दिवस की पूजा होगी

तीन दिवस का रोना होगा
फिर तेरे फोटो से छिपता
घर का कोई कोना होगा
अब, राज किया जिसने उसकी
शुद्धि करने की ठानेंगे

जीते-जी ना जान सके जो

वो मरने पे क्या जानेंगे

प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, November 9, 2013

उलझनें

उलझनें 
वक़्त की तंग गलियों से निकल
फिर उसी दोराहे पर आकर खड़े हैं हम
जहाँ सच और झूठ की दीवारों पर 
विश्वास और अविश्वास की परछाईं है
ख़्वाबों को मुट्ठी में बाँधे हुए
जज़्बात की हालात से कैसी ये लड़ाई है
कभी बनती और कभी बिगड़ती सी
आसमाँ पर बादलों की कितनी तस्वीरें
कैसे खो सी जाती हैं धुआँ होकर
जैसे ज़िंदगी से मेरी तक़दीरें !
आज फिर भीगी पलकें हैं, और दिल में 
वही ख़लिश सी छाई है..... 
रुँधे गले से कंपकँपाते शब्द कहते आकर 
इस ज़ंग में भी तूने मात ही खाई है
वक़्त का जोर या बदक़िस्मती का शामियाना
अपनी तो हर हाल में रुसवाई है
साथ देने को तैयार खड़ी खामोश सी ये 'ज़िंदगी
क्यूँ भला अब तक ना हमें रास आई है ??? 
प्रीति 'अज्ञात'

Friday, October 4, 2013

एक संदेश..... 

 तुम व्यस्त हो, उन्हीं रोजमर्रा के 

ऊटपटांग और फालतू कार्यो में उलझे हुए 
जिन्हें दुनिया 'सामान्य दिनचर्या' और बुद्धिजीवी 
'रोटी की जद्दोज़हद' के विशेषणों से
अलंकृत किया करते हैं.
हँसा करते हैंसब एक-दूसरे पर
जबकि खुद भी वही किया करते हैं.
आख़िर क्यूँ हुआ करती है, 
ये बेवजह की भागादौड़ी 
चेहरे पर अनावश्यक तनाव 
माथे पर बनती कुछ लंबी लकीरें  
हर बात पर खीजना-झुंझलाना 
गुस्से से तना चेहरा 
और अवसाद में डूबे शब्द ! 
ये वो चेहरा तो कतई नहीं 
जिसे शीशे के सामने खड़े हो तुम  
घंटों निहारा करते थे 
आजमाते थे, हर वो उत्पाद  
जो और भी खूबसूरत बनाने का  
दावा किया करता था,
इस साँवले से चेहरे को.
फँस जाया करते थे ना, तुम भी 
उन भ्रामक विज्ञापनों के मायाजाल में 
और उनके गीत भी तो कैसे  
खुश होकर गुनगुनाया करते थे. 
फिर अब ऐसा क्या बदल गया है, कि 
खुद की ही फ़िक्र नहीं रही तुम्हें 
लगे हुए हो, उन सबको खुश करने में 
जिन्हें तुम्हारी भावनाओं की कीमत तक नहीं 
जुड़े हैं वो तुमसे, बस स्वार्थवश 
हर हाल में नाखुश ही रहेंगे, सब 
तुम्हारी सौ अच्छाइयों में से एक बुराई 
ढूँढ ही निकालेंगे, देखना तुम
और वक़्त-बेवक़्त मारा करेंगे ताने भी 
आजमाया हुआ है, मैनें तो ये... 
तो फिर क्यूँ ना, रोज सुबह ही 
कुछ पल निकाल के, जी लो  
उसके लिए भी अब
जिसका पूरा दिन निकल जाता है, हंसते हुए 
सिर्फ़ तुम्हारे एक छोटे से संदेश को पाकर
देखो ना, शायद प्रति-उत्तर से 
तुम्हारा दिन भी बन जाए, कुछ ख़ास... 

प्रीति 'अज्ञात' 

Friday, September 20, 2013

Abhi Baaqi Hai......

अभी बाक़ी है......

दिल के कुछ जज़्बात अभी बाक़ी हैं

जी ले कुछ देर, क़ायनात अभी बाक़ी है
घट रहीं साँसें, पर उम्मीदें फिर भी ज़िंदा रहीं
मुरझाए फूलों में वो बात अभी बाक़ी है.

तमाम ख़ुशियाँ अब तरसीं, तेरी नज़र के लिए

चंद लम्हात ठहर गये हैं, उम्र भर के लिए
है दिल उदास मगर अश्क़, जुदा होते नहीं
थमी जो बरसों से 'बरसात' अभी बाक़ी है.

यूँ ग़मजदा से कूछ मायूस और ख़फ़ा हम हैं

हर मुस्कान के पीछे बिलखती 'शब' नम है
थकी हैं राहें, 'हादसा-ए-मौत' होगा कहीं
मगर 'ए-ज़िंदगी' तुझसे मुलाक़ात अभी बाक़ी है.
प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, September 11, 2013

Wahi Tanhaaiyan.....


वही तनहाईयाँ 
घने कोहरे ने आज फिर रोशनियों को घेरा है, 
क्यूँ अब आसमाँ पर उन्हीं मायूसियों का डेरा है. 
कि चल रही थी ज़िंदगी,राशन की इक कतार सी, 
देखी ना थी वो दुनिया कभी,जो वहाँ उस पार थी. 
आहटें  किसकी सुनूँ मैं, कौन से अब रंग चुनूँ मैं, 
ऊन के गोले सी उलझी ख्वाहिशों से क्या बुनूं मैं. 
दस्तकें जब भी हूँ सुनती, मोम जैसी हूँ पिघलती, 
ज़िंदगी बहुरुपिया बन, हर कदम पे क्यूँ है मिलती. 
रेत पर अब पग हैं धंसते, हर कदम गिरते- संभलते 
एक पल मोती सा लगता, दूसरे पल आँख मलते. 
छूट जाए जो भी थामा, किस्मत ना अपने साथ थी, 
जीत गई दुनिया लो फिर से, अपने हिस्से हार थी. 
प्रीति 'अज्ञात'