Sunday, February 23, 2014

शब्द-सेतु

तुम्हारे और मेरे बीच
एक सेतु हुआ करता था
जिस पर चलकर रोजाना ही 
विश्वास की गहरी नींव
और स्नेह-जल की फुहारों में
गोता खाते हुए हमारे शब्द 
मचलकर एक-दूसरे तक 
पहुँच इठलाया करते थे.

बहुत गुमान था, हमें
कभी भी इसके न टूटने का
यूँ तो था ये केवल अपना ही
पर अपनेपन में, हमने गुजरने दिया 
कुछ अंजान लोगों को भी इससे होकर
वह दौर ही कुछ ऐसा था
जहाँ आभास तक न था
किसी की मंशा और इस संशय का.

धीरे-धीरे न जाने कितने मुसाफ़िर
चलने लगे, आम रास्ता समझ
हाँ, बहुत ख़ास था ये
बस मेरा-तुम्हारा
पर होता गया मलीन
लोगों की बेरोक-टोक आवाजाही से
भरते रहे सब अपने विचारों की गंदगी
बढ़ता ही गया, अनपेक्षित भार.

देखो  ! आज जब, वही लोग
इस पर हंसते-गुनगुनाते
नज़र आते हैं, तब
हमारे लिए कमजोर हो 
डगमगाने लगा है, ये शब्द-सेतु
और अब, मैं और तुम, 
बैठे हैं, इसके दोनों सिरों पर
अलग-अलग, बेहद उदास और गुमसूम 
भयभीत हैं, उस मंज़र की कल्पना से ही
जब हमारी आँखों के सामने
हमारा अपना 'स्नेह-पुल'
मात्र शब्दों के अभाव में, सिसकता हुआ
चरमरा कर दम तोड़ देगा !

प्रीति 'अज्ञात'

Friday, February 21, 2014

साया

तुम्हारी आहटों पर दिल किसी का, जब न धड़के 
तू परेशां हो इधर, और आँख वो उधर न फड़के 
न हो व्याकुलता, जो हर वक़्त पला करती थी 
न निगाहें रहीं, जो साथ चला करती थी. 
न हो ख़ुश्बू वो पहले सी, इन फ़िज़ाओं में 
न ही कोई नाम ले अब तेरा उन दुआओं में 
जहाँ मौजूदगी का तेरे, अब एहसास नहीं 
कोई दिखता तो है, पर फिर भी तेरे पास नहीं 
नही वो आसमाँ जिसमें सुकून रहता था 
वो जो तेरे लिए जीना जुनून कहता था 
न है अधिकार बाकी, न ही वो अब बात रही 
एक अंजान शख़्स सी ही तेरी जब बिसात रही 
गिरे आँसू इधर, और वहाँ अभिमान दिखे 
हरेक पल इस मोहब्बत का ये अपमान दिखे 
तो जान ले तू ए-दोस्त, वो प्यार तेरा नहीं 
तराशा था जो तूने ख्वाब, अब सुनहरा नहीं 
है ये क़िस्मत तेरी, पर दोषी इसका तू भी कहीं
चले जहाँ से थे, बस आज तुम खड़े हो वहीं 
हाँ, जिसका डर था, 'हादसा' वही अब हो गया है 
वो जो 'साया' था तेरा, भीड़ में अब खो गया है. 

प्रीति 'अज्ञात''

Wednesday, February 19, 2014

स्त्री और पुरुष

स्त्री और पुरुष
तराजू के दो पलड़े
लगते संतुलन बनाते
पर दूर हैं, खड़े

स्त्री के लिए पुरुष
उसकी ज़िंदगी
पुरुष से होती नहीं
ऐसी कोई बंदगी 

स्त्री के लिए प्रेम
उम्र-भर का वादा
पुरुष के लिए मात्र
प्राप्य का इरादा

स्त्री के लिए साथ
एक सुंदर अहसास
पुरुष के लिए घुटन
जब भी वो पास

स्त्री बोलती रहती है
कि पुरुष कुछ कहे
वो कुछ नहीं बोलता
ताकि स्त्री चुप ही रहे

स्त्री के लिए मौन
उसका अवसाद
पुरुष के लिए
टाला गया वाद-विवाद

स्त्री के लिए विवाह
रिश्ता जनम-जनम का
पुरुष के लिए प्रतिफल
उसके बुरे करम का

स्त्री की चाहत
छोटे-छोटे से पल
पुरुष की नज़रों में
व्यर्थ का कोलाहल

स्त्री बचपन से
सपनों की आदी
पुरुष जीता समाज बन
हरदम यथार्थवादी

प्रीति 'अज्ञात'

Monday, February 10, 2014

जान ले तू....

छुप रहा हैं क्यूँ अभी से, बादलों के पार तू
न हो रज़ा तो ढीठ बनके,कर दे अब इन्कार तू

दर्द का बहता समंदर, कश्ती न पतवार है
छोड़ दे लहरों में खुद को, कर जाएगा पार तू

पत्थरों के आगे झुक,हासिल कहाँ अब रोटियाँ
छीन ले उठकर इन्हें या,श्रद्धा का कर व्यापार तू

सीख ले सब दुनियादारी रस्मे-उल्फ़त कुछ नहीं
जीते-जी मर जाएगा, जो कर गया ऐतबार तू

दूर वो बूढ़ी सी आँखें, नम हो दुआएँ भेजतीं
ग़म को छुपा भीतर कहीं, लग जा गले से यार तू

लड़खड़ाते ही सही पर कुछ कदम अब शेष हैं
कोई तुझ बिन  मरेगा, देख बन के मज़ार तू

अजनबी चेहरों की महफ़िल में खुशी को ढूंढता
हादसा ऐसा हुआ कुछ, ख़ुद बन गया बाज़ार तू

तेरे ग़म पे हँसने वाले साथ में न रोएंगे
इतना ही काफ़ी समझ ले,रिश्तों का कारोबार तू

प्रीति 'अज्ञात'