Wednesday, May 6, 2015

बेवक़ूफ़ा !!

'प्रेम'
पता नहीं क्या है 'प्रेम'
पढ़े थे अनगिनत किस्से 
सुनी कितनी कहानियां भी 
लैला-मजनूँ , शीरी-फरहाद,
हीर-राँझा और मोहल्ले की 
गुड्डी और बबलू की 
अखबारों में छपी 
प्रेम कहानी ने भी 
मन को छुआ था कभी 
पर बात बस, वहीँ तक 
सीमित रही 
महसूसा नहीं कभी !

तुम मिले तब,
जबकि इसके होने पर से ही 
यक़ीन उठ चला था 
पर बदलने लगे ख़्याल  
और जाना 
हाँ , यही है 'प्रेम'
तुम्हारी आवाज़ 
मेरी साँसें 
तुम्हारा हँसना 
मेरी धड़कन 
तुम्हारी जीत 
मेरी ख़ुशी 
तुम्हारा दुःख 
मेरी परेशानी 
जीने लगी तुम्हें 
तुमसे पूछे बग़ैर !

यक़ीनन यही  था 'प्रेम'
यही है 'प्रेम'
यही होता होगा 'प्रेम'
वरना तुम्हारा स्पर्श,
अहसास की याद भर 
क्यूँ देती 
जाड़ों में खाई आइस्क्रीम-सी 
गुदगुदाती मीठी सिहरन 
तुम्हारा आलिंगन क्यूँ लगता 
जैसे कछुआ घुस गया हो 
अपने सुरक्षित खोल में 
तुम्हारा चुम्बन क्यूँ देता 
सूखी धरती पर 
पहली बारिश की 
पूर्णता-सा सुख 
तुम्हें याद करती हूँ 
तो भीगता है मन 
सोचो, कैसा होता होगा 
बारहों महीने भीगते रहना !

तुम कुछ कहते क्यों नहीं 
क्या यही है प्रेम ?
क्या यही था प्रेम ?
क्या अब भी मेरे-तुम्हारे बीच 
शामिल है प्रेम ?
अपनी क्या कहूँ 
'बेवक़ूफ़ा' ! 
यही नाम दिया था न 
तुमने मुझे 
हाँ, सच्ची ! तभी तो 
आज भी मैं, 'इसे' 
'महबूबा' का पर्याय मान 
खुश हो लेती हूँ !
- प्रीति 'अज्ञात'