नहीं महसूस होता उसे कि
कहाँ ले जाया गया और कौन थे
उस तन्हा सफ़र के साथी
कितनी उदासियाँ असली थीं
और कितने चेहरे आभासी
कितने आगंतुक परेशान थे
देरी की कथा सुनाकर
और कितने उठ गये बीच में ही
कार्य की व्यथा बताकर
नहीं समझ पाती वो आज भी, कि
उम्र भर बंधनों से बँधी रही जो
क्यूँ बाँधा गया है उसे और भी कसकर
क्यूँ न दिया अब तलक उसे किसी ने
उसका पसंदीदा वो लाल वाला फूल चुनकर
रंग भी देखो ओढ़ा दिया वही फीका-सा
जो कभी पहना था उसने सुबककर
ये कैसी विवशता है जाने ! कि
न सीखा तैरना, पर बह जाती है
घबराती थी लौ से जो, अब जल जाती है
सहमी गहरे अंधेरों से, गड्ढों में सहसा उतर जाती है
नही करती इस बार कोई भी सवाल-जवाब
और मौन हो स्वत: कूच कर जाती है
थक चुकी है वो इस जीवन-संघर्ष से
सो बँध गई पाषाण हो एक और बेड़ी समझ
पसंद-नापसंद पहले भी किसने पूछी उसकी ?
बह जाती हैं अपने ही आँसुओं की नदी में
जलती है भीतर के ज़िंदा सवालों की तरह
अंधेरा ज़रूर अपना-सा ही लगता होगा उसे
इसीलिए ही तो, हाँ इसीलिए ही
'लाशें' कभी प्रतिरोध नहीं करतीं !
प्रीति 'अज्ञात'
कहाँ ले जाया गया और कौन थे
उस तन्हा सफ़र के साथी
कितनी उदासियाँ असली थीं
और कितने चेहरे आभासी
कितने आगंतुक परेशान थे
देरी की कथा सुनाकर
और कितने उठ गये बीच में ही
कार्य की व्यथा बताकर
नहीं समझ पाती वो आज भी, कि
उम्र भर बंधनों से बँधी रही जो
क्यूँ बाँधा गया है उसे और भी कसकर
क्यूँ न दिया अब तलक उसे किसी ने
उसका पसंदीदा वो लाल वाला फूल चुनकर
रंग भी देखो ओढ़ा दिया वही फीका-सा
जो कभी पहना था उसने सुबककर
ये कैसी विवशता है जाने ! कि
न सीखा तैरना, पर बह जाती है
घबराती थी लौ से जो, अब जल जाती है
सहमी गहरे अंधेरों से, गड्ढों में सहसा उतर जाती है
नही करती इस बार कोई भी सवाल-जवाब
और मौन हो स्वत: कूच कर जाती है
थक चुकी है वो इस जीवन-संघर्ष से
सो बँध गई पाषाण हो एक और बेड़ी समझ
पसंद-नापसंद पहले भी किसने पूछी उसकी ?
बह जाती हैं अपने ही आँसुओं की नदी में
जलती है भीतर के ज़िंदा सवालों की तरह
अंधेरा ज़रूर अपना-सा ही लगता होगा उसे
इसीलिए ही तो, हाँ इसीलिए ही
'लाशें' कभी प्रतिरोध नहीं करतीं !
प्रीति 'अज्ञात'
बदलते समय ने इन 'लाशों 'को स्फुरण दी है ..अब वह समय भी दूर नहीं जब इनमे पूरी गति भी आयेगी. परिवर्तन तो ज़रूर दिख रहा है हर ओर. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteधन्यवाद ! जी, परिवर्तन की एक हल्की-सी बयार तो नज़र आने ही लगी है !
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