Thursday, December 19, 2013

ग़ज़ल

धड़कनों ने साँसों को करके ग़ुलाम भेजा है
ज़िंदगी संग मौत का ये पैग़ाम भेजा है

थक गये करते-करते जी- हज़ूरी दुनिया की
आज हमने खुद से, खुद को सलाम भेजा है.

इक उम्र होती है यादों की भी, कब तक जिलाते उनको
अब इक लिफ़ाफ़ा तेरे शहर से, अपने नाम भेजा है.

है रात काली और साया भी गुमशुदा सा हुआ 
ख़ुदा तूने साथ में ये कैसा, इंतजाम भेजा है

.है मतलबी सब लोग, साथ वक़्त के  बदल जाते हैं
इस हक़ीक़त को बताकर मुझे, किस्सा तमाम भेजा है.

इस मुफ़लिसी में अश्क़ तो चुपचाप बस गिरते रहे
अपनी दुआ का फिर भी उन्हें,देखो ईनाम भेजा है. 

ना मानी हार, थे गुमनाम पर ज़िंदा अभी
हैं ख़ुशनसीब जो तूने ही मेरा क़त्ले आम भेजा है.

प्रीति अज्ञात'

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