Thursday, July 10, 2014

प्रेम

प्रेम' होता नहीं
मिलता जाता है
जन्म लेते ही,
माता-पिता से
परिवार से, मित्रों से
शिक्षकों से
प्रेमी / प्रेमिका से
पति / पत्नी से
घर-बाहर, हर स्थान पर
उपलब्ध है 'प्रेम'
बिक भी जाता है कहीं
अभावों की मार से
अल्हड़, मासूम प्रेम.

हर रिश्ते में पूरी तरह
नहीं पाता ये स्वयं को
खो जाता है कहीं
अधूरा ही छूटा हुआ
हथेलियों से फिसलकर
निरीह, बेचैन प्रेम.
रह जाते हैं, महीन छिद्र,
उन्हीं सूराखों से रिसकर 
एक दिन घबराता-सा
व्याकुल हृदय से बाहर
निकल आता है प्रेम,
तलाशने को, इक और 'प्रेम'.

कहीं भ्रम, कहीं विवशता
कभी अचानक, कभी सोचा-समझा
कुकुरमुत्ते-सा, हल्की नमी पाते ही
उग आता है प्रेम.
सुंदर इठलाता हुआ
नवांकुर-सा, रूपांतरित हो
हरीतिमा से आच्छादित
मोगरे के फूलों-सा 
सुरमित कर वातावरण को
महक, बहक जाता है प्रेम.

फिर वही सर्व-विदित सत्य
समय की तीक्ष्ण धूप और
अपनी ही परछाईयों की शाम ओढ़े
यकायक, बिन कहे
कभी फफूंद-सा सड़ता,
बैठता मुरझाया हुआ
उदास, कुम्हलाकार
झुलस जाता है प्रेम.

मायूस हो सर झुकाए लौटता
उसी टूटे खंडहर में,
खुद से हारा हुआ
बदनाम, लाचार 'प्रेम'.
अब झाँकता है, उन्हीं
महीन छिद्रों से
जिन्होंनें कायान्तरित हो
भीतर-ही-भीतर
बुन ली भय की गहरी खाई
इसी अंधेरे कुँए में डूबकर
एक दिन अचानक ही
विलुप्त हो जाता है 'प्रेम' !

प्रीति 'अज्ञात'
Pic clicked by me :)

34 comments:

  1. Replies
    1. धन्यवाद, सुशील कुमार जी !

      Delete
  2. कटु सच .... बात तो विचारणीय है

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, बिल्कुल मोनिका जी :) आभार !

      Delete
  3. प्रेम जैसी कोमल भावना किन-किन स्थितियों से जूझती है ,अपनी बदलती दशाओं पर बिसूरती , क्षीण हो जाए भले पर मरती नहीं अपने आप में सिमट कर रह जाती है.-सुन्दर भाव !

    ReplyDelete
    Replies
    1. पोस्ट पर आने और प्रतिक्रिया देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, प्रतिभा जी !

      Delete
  4. बहुत सुन्दर ..कितना कुछ कह दिया ... शब्दों में..

    ReplyDelete
  5. Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद, राजीव जी !

      Delete
  6. प्रीती जी जय श्री राधे ..सुन्दर रचना ...प्रेम नदी की लहरों की तरह कहाँ से शुरू..उथल पुथल ऊंचा नीचे बाधा सरलता कहाँ तक चल के ...सुन्दर बधाई
    आभार
    भ्रमर ५

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार आपका..सुरेंद्र जी !

      Delete
  7. प्रेम ऐसा ही है. प्रेम के भिन्न-भिन्न रूप हैं–कभी इसमें पीड़ा है, कभी उल्लास, कभी उदासी है, कभी जोश... सुंदर और भावपूर्ण रचना, खूबसूरत तस्वीर बधाई ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, प्रेम ऐसा ही तो होता है ! धन्यवाद , इस सुंदर प्रतिक्रिया के लिए !

      Delete
  8. सुंदर प्रस्तुति , आप की ये रचना चर्चामंच के लिए चुनी गई है , सोमवार दिनांक - १३ . ७ . २०१४ को आपकी रचना का लिंक चर्चामंच पर होगा , कृपया पधारें धन्यवाद !

    ReplyDelete
  9. बहुत सुन्दर
    मन को छू लेने वाले भाव

    ReplyDelete
    Replies
    1. दिल से आभार, अनुषा ! :)

      Delete
  10. वाह क्या बात है. बहुत ही सुंदर लिखा है आपने. प्रेम को बेहद करीने से समझाया है

    ReplyDelete
  11. एक अलग नजरिया

    ReplyDelete
    Replies
    1. बस एक कोशिश..आभार ओंकार जी !

      Delete
  12. Prem ka sunder prastuti karan.....

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद ! :)

      Delete
  13. Replies
    1. शुक्रिया, विभा दी ! आपको यहाँ देखकर बेहद खुशी हुई ! आती रहिए ! :)

      Delete
  14. प्रेम विलुप्त हो कर भी रहता है फिजाओं में ... इस हवा में ...
    पनप उठता है नमी मिलते ही ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया, दिगंबर जी !

      Delete
  15. आभार, यशवंत जी !

    ReplyDelete
  16. प्रेम विलुप्त नहीं होता
    जहाँ प्रेम की शक्ल नहीं,
    वहाँ से लौट आता है
    प्रेम अपने में प्रेम है
    वह मरता नहीं
    क्योंकि प्रेम एक शक्ति है
    एक ख्वाब है
    अपने नाम के अनुरूप एक हकीकत है
    प्रेम देता है
    - कर्ण की तरह
    किसी के आगे अपनी ज़िन्दगी के लिए हाथ नहीं फैलाता
    ....
    प्रेम इन्द्र नहीं
    प्रेम कुंती नहीं
    प्रेम गांधारी भी नहीं
    प्रेम राधा है
    प्रेम कृष्ण है
    प्रेम 'मैं' है

    ReplyDelete
    Replies
    1. वाह, रश्मि जी ! अद्भुत :)
      शुक्रिया, इतनी खूबसूरत प्रतिक्रिया के लिए !

      Delete