Sunday, October 19, 2014

क्या किया तुमने ?

पहाड़ियों के पीछे
छिपता सूरज
रोज ही उतर जाता है 
चुपचाप उस तरफ
बाँटता नहीं कभी
दिन भर की थकान
नहीं लगाता, दी हुई
रोशनी का हिसाब
अलसुबह ही ज़िद्दी बच्चे-सा
आँख मलता हुआ
बिछ जाता है आँगन में
देने को, एक और सवेरा.

हवाओं ने भी कब जताया
अपने होने का हुनर
चुपचाप बिन कहे
क़रीब से गुजर जाती हैं
जानते हुए भी, कि
हमारी हर श्वांस,
कर्ज़दार है उनकी.

नहीं रूठीं, नदियाँ भी
हमसे कभी
बिन मुँह सिकोडे
रहीं गतिमान
समेटते हुए
हर अवशिष्ट, जीवन का.

साथ देना है तुम्हारा
तन्हाई में
यही सोच, चाँद भी तो
कहाँ सो पाता है
रात भर
देखो न, तारों संग मिल
चुपके से खींच ही लाता है,
'चाँदनी' की उजली चादर.

ये उष्णता, ये उमस
आग से जलती धरती
की है कभी, किसी ने शिकायत ?
उबलता हुआ खलबलाता जल, 
स्वत: ही उड़ जाता है, बादलों तक
और झरता है
शीतल नीर बनकर.
सृष्टि में ये सब होता ही रहा है
सदैव से, तुम्हारे लिए.

और तुम ?
क्या किया तुमने ?
उखाड़ते ही रहे न
हर, हरा-भरा वृक्ष
अड़चन समझकर.
चढ़ा दिया उसे अपनी
अतृप्त आकांक्षाओं
की बलिवेदी पर
और फिर गाढ दीं
उसी बंज़र ज़मीं में
अपनी अनगिनत, 
औंधी, नई अपेक्षाएँ !

- प्रीति 'अज्ञात'

तेरे लिए

कुछ शब्द बिखर रहे थे
हवाओं में आहिस्ता-से जैसे
हर श्वांस के साथ 
उतरते गये रूह में धीरे-धीरे,
एक आवाज़ बसती गई
हृदय में, धड़कन की तरह
चेहरे पर खिलखिलाती रही 
उन आँखों की रोशनी.
वो जो, एहसास-सा ख़्वाबों में
महकता था अक़्सर
न जाने ये 'तुम' थे
या मेरी दुआ का असर,
सूखे मन की भीगी माटी
देती गई, सौंधी-सी खुश्बू
जानती हूँ, वो मेरा होकर भी
मेरा होगा, नहीं कभी.
एक मौज़ूदगी का एहसास
एक हँसी मेरे लिए
न जाने ये 'प्रेम' है
या कुछ और, पर
काफ़ी है ये सामान 'ज़िंदगी'
जीना जो है मुझे, 
बस तेरे लिए ! 
- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, October 13, 2014

काश ! यूँ होता....या न होता ? :O

काश, मैं भी पुरुष होती !
खड़ी हो जाती लाइन में बेझिझक
पहचाने चेहरों को ढूँढे बगैर
शाम होते ही, पहुँच जाती
किसी गली के नुक्कड़ पे
हँसती जोरों से, बेमतलब ठहाके लगाती
चिल्लाकर पुकारती, अपने दोस्तों को
नि:संकोच, 'अबे, साले' कहकर.
घूरती हर आती-जाती लड़की को
और फिर कनखियों से, मैं भी मुस्कुराती.

जहर ही सही, पर चखती,
एक बार तेरी तरह
सिगरेट के कश, कभी मैं भी लगाती
चढ़ जाती दौड़कर, किसी भीड़ भरे डब्बे में
या मजबूरी में लटककर ही जाती
निकल जाती मुँह अंधेरे 
क्रिकेट का बल्ला उठाकर
और देर रात घर आती
न देनी पड़ती सफाई
न होती कभी पिटाई
न करता कोई चुगली मेरी
न बात-बात पे यूँ रो जाती!

न लेती अनुमति किसी की
जो जी में आए, करती-कराती
तू आए न आए, कौन जाने
मैं ही खुद, तुझसे मिलने आ जाती
काश, मैं पुरुष होती
तो इतनी बंदिशें, 
झूठी तोहमतों में बदलकर
दुनिया मुझ पर न लगा पाती
काश, मैं पुरुष होती
तो बेखौफ़ सबकी अकल ठिकाने लगाती
खुद से आसानी से यूँ
बार-बार ना हार जाती
...............................
पर फिर ये भी तो होता न, कि :P
उलझ जाती मैं
गृहस्थी के जंजाल में
बीवी के बवाल में
दुनिया के मायाजाल में
ज़िम्मेदारियाँ और लोगों के ताने
कर देते जीना मुश्किल मेरा
और हँसना पड़ता मुझे हर हाल में
लो फँस गये न, हम खुद
अपने ही फेंके, इस घटिया से जाल में !
उफ्फ, अब 'तनाव' दूर करने के लिए
करनी पड़ेगी शॉपिंग, जल्दी से भागकर
सिनेमाघर के नज़दीक वाले 
अपने उसी पसंदीदा 'मॉल' में ! :D

- प्रीति 'अज्ञात'

Monday, October 6, 2014

'ज़िंदगी' भर 'ज़िंदगी' को, आज़माते रहे 
'ज़िंदगी' भर 'ज़िंदगी' से, मात ही खाते रहे. 

हादसे कितने भी झेले, उफ़ न की दिल ने कभी 
ये भी सच है चुपके से, हर ज़ख़्म सहलाते रहे. 

दुश्मनों की क्या ज़रूरत, दोस्त ही कुछ कम नहीं 
पिघलेंगे वो मोम बन के, खुद को समझाते रहे. 

झूठ और सच की है दुनिया, सच का दामन थाम के 
करके उनसे सच की उम्मीद, मन को भरमाते रहे.

गिर के उठे,खुद को संभाला, हौसला न चरमराया 
अश्क पलकों में सजे थे, लब मगर मुस्काते रहे. 

आरज़ू कितनी थी बाँटी, कितनों के दिल हमने जोड़े 
अपने ख्वाबों को खुरचकर, बस कसमसाते रहे. 

कश्ती सागर में थी डूबी, तैरने की ज़िद न छोड़ी 
टूटी इक पतवार थामे, गोते ही खाते रहे. 

क्यूँ नवाज़ेगा 'खुदा' अब, प्यार से इक 'दिल' भला
लेके इसको हाथ में जब, पत्थरों से टकराते रहे.

- प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, October 1, 2014

ज़िंदा हूँ कहीं....अब भी

मेरे हर सवाल का जवाब है वहाँ
कोसा जाता है, जी भर के मुझे
लगते हैं कई मनगढ़ंत आरोप
ठहराकर दोषी सरेआम
उड़ाई जाती है खिल्ली भी
दिया उलाहना हर अपेक्षा को
मारे वीभत्स ताने भी
सिसकती रहीं उम्मीदें
फिर शब्दों ने उडेली
सहानुभूति बटोरती संवेदनाएँ
कि मनुष्यता का हर भरम रहे बाकी !

अब चस्पा किया गया उन्हें
हर गली, नुक्कड़, चौराहे पर
खींचने को भीड़, भर दिए आकर्षक रंग भी
इन सबके बीच, बेझिझक नीलाम होता रहा 'प्रेम'
ढूंढता रहा अंत तक भौंचक्का हो
अपने ख़त्म होने के, आख़िरी निशाँ
कि जितनी बार भी पोंछना चाहा
खींच दी गई और भी लंबी लकीर
जिसके उस पार प्रवेश निषिद्ध था !

कहीं नहीं दिखी न मिल पाने की क़सक
कहीं नहीं था इंतज़ार का बहता आँसू
नहीं थी खुशी मेरे लिए एक पल को भी
खो गया था, हर वादा
गूँथी जा रही, नई पहेलियों के बीच
कसता गया शिकंजा
और टूटा एक कमजोर रिश्ता
पर फिर भी, नहीं गिला तुझसे
नहीं कोई शिक़ायत
हाँ, कहीं नहीं हूँ बाक़ी
पर तेरी हर धधकती कविता का
'विषय' तो हूँ !

- प्रीति 'अज्ञात'