Friday, April 17, 2015

ज़िंदा हूँ मैं

मैं छोड़ती नहीं हूँ उम्मीद
उम्मीद के ख़त्म हो जाने पर भी
नहीं रहती मौन
शब्दों के चुक जाने पर भी
हँसती हूँ व्यर्थ ही
हँसी न आने पर भी
पुकारती हूँ गला फाड़
अनसुना हो जाने पर भी !

कि उम्मीद को छोड़ा
तो फिर रहा क्या ?
जो दोहराया ही न खुद को
तो आख़िर कहा क्या ?
न हँसी व्यर्थ ही
तो कब हँस पाऊँगी
चीखकर जो पुकारा
तो खुद से ही मिलके आऊँगी !

उम्मीद के पूरे होने की, 
स्वार्थी उम्मीद में
अब नहीं जीती मैं
उत्तरों की बाट जोहती 
सूखी सुराहियाँ 
नहीं पीती मैं
हँसती हूँ कि 'ज़िंदगी'
चलती रहे
पुकारती हूँ, कि चलो
मेरी ही ग़लती रहे !

वरना ये समझने में अब
कोई मुश्किल, न कला 
नि:स्वार्थ कोई किसी का
कभी, हुआ है भला !
और फिर एकाएक खिल पड़ती हूँ मैं
जैसे अपनी ही बेवकूफ़ियों से मिल पड़ती हूँ मैं !

है बंजर ज़मीं, उधर सरहदों में
मैं उड़ती इधर, अपनी हदों में
जैसे सोने के पिंजरे का 
इक परिंदा हूँ मैं
ईमां सलामत, तभी तो
"ज़िंदा हूँ मैं" !

- प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, April 1, 2015

'आख़िरी ख़त' (?)

तुम्हारे नाम का 'आख़िरी ख़त'  
न जाने कितनी बार
लिखा, मिटाया
हर बार जताना चाहा 
अपना गुस्सा
पर कुछ इस तरह
कि तुम
उदास न हो जाओ कहीं
मैं जानती हूँ
तुम जानते हो
दिल जानता है
'उदासियाँ' व्यर्थ हैं !

मात्र 'उदास' हो जाने से ही
नहीं बदल सकती होनी
होता है कहीं कुछ
तो इन उदासियों का 
ख़ामोशी से 
मायूस समर्पण
मायूसी का भंवर
निगल लेता 
एक ही झटके में 
पर डुबोता धीरे-धीरे
कि दर्द की तलहटी में
सहम बैठ जाये,
उम्मीदों का कलेजा
और डूबते-उतराते
निर्जीव हो, बिखरने लगें 
इच्छाओं के 'पर' !

यक़ायक़ खो गए 
शब्दों के मायने
सुर्ख़ यादें, झर रहीं
पीले पत्तों-सी
व्यथित हृदय
पूछता सवाल
दोषी कौन ?
बहते जवाब 
'अर्थ' बन,
मुर्दा आँखों से

अथाह सागर
खोया किनारा
हतप्रभ लहरें
न समझ सकीं
कब लौटने लगे
शिकायतों के पाँव
अनधिकृत क्षेत्र में
प्रवेश, वर्जित देख
ठगी-सी खड़ी,
इक बँधी मुट्ठी में 
अब तक भौंचक,
'आख़िरी ख़त'
कसमसाया और 
पुर्जा-पुर्जा हो
गलता रहा वहीं
इधर टुकड़ा-टुकड़ा मन,
फैलने लगा
काग़ज़ों पर !
- प्रीति 'अज्ञात'

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