Wednesday, January 31, 2018

ऋण

ऋण है हम पर 
पंछियों, हवाओं और 
तेज, तूफ़ानी बारिश का  
जिन्होंने बीज-बीज छितराकर,
बहाकर  
घने जंगल बसाए 
और हमने उन्हें उखाड़ 
पत्थरों के कई शहर बना लिए
इधर हम विकसित लोग 
अब तरसते हैं हवा-पानी को 
उधर हताश पंछी भटक रहे 
घोंसले की तलाश में 
जंगली जंतुओं के शहर तक चले आने में 
तुम्हें हैरत क्यों है भला?
प्रश्न यह है कि 
अतिक्रमण, किसने किया है किस पर
आह! देखती हूँ जब भी गगनचुम्बी इमारतें 
मेरे भीतर एक जंगल अचानक 
लहलहाकर गिर पड़ता है 
- प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, January 25, 2018

नेता और अफसर

जैसे ही नेता जी चीखे 
अफसर बोले, आया जी 
युग बीते हैं इन चरणों में
पर गले नहीं लगाया जी 

तुम जात-पांत के खेला में 
हाय हमको दद्दा भूल गए 
जान निछावर करके हारे 
कुछ भी न हमने पाया जी 

मां-बाबा के इकलौते थे 
और जी-जान से पढ़ते थे 
तुम लड़ते संसद में जैसे 
हम घर पर भी न करते थे 

अरे, राजा हो या प्यादा हो
पर भाषा की मर्यादा हो
मत भूलो सम्मान किसी का
शिक्षा ने सिखलाया जी

पर राजनीति की कीचड़ ऐसी 
अच्छा-बुरा बराबर है
जिसका, जितना खेल भयंकर 
वही हुआ कद्दावर है 

देशप्रेम की ख़ातिर हमने 
किस्सा ये समझाया जी 
पीर हिया की बाहर निकली 
मन को हल्का पाया जी  
 -प्रीति 'अज्ञात'

Wednesday, January 24, 2018

आश्वासन

सरकारें बनतीं-बिगड़तीं
गिरतीं- संभलतीं
पर उठकर कभी खड़ा ही न हो पाता
बेबस, लाचार आदमी
मुद्दों की धीमी-धीमी आँच पर 
दशकों से सिक रहीं
गुलाबी वादों की करारी रोटियाँ
समयानुसार उठती है फुँकनी
पहुँचती है मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारे तक 
कि लौ दिखती रहे
और आँतों से गलबहियाँ कर 
चिपकी रहे बुभुक्षा 

पर अब तक अटकी हुई 
आशाओं के शुष्क गले में  
आश्वासनों की सूखी सैकड़ों हड्डियाँ 
जिन्हें बारम्बार निगलने की कोशिश में 
धँसता जा रहा आदमी
उम्मीद की पसरी आँखें
अब भी चूल्हे पर
कि कभी तो परोसी जायेंगीं रोटियाँ

इधर निरीह, झुलसी
ग़रीबी का उदास चेहरा लिए
बुझती लकड़ियाँ
अन्न की प्रतीक्षा में
मिट्टी की चहारदीवारी में 
बेचैनी से बदलती हैं करवटें  
कि देखें क्या निकलता है पहले
गले की हड्डी 
या आदमी का दम  
- प्रीति अज्ञात 

Friday, January 19, 2018

इश्क़

इश्क़, जैसे कड़कड़ाती सर्दी में
खिली-खिली धूप
और रजाई में कुटर-कुटर करती 
मूंगफली

इश्क़, जैसे सुबह
आँगन में पसरा हरसिंगार
और खुली खिड़की से झाँकता
झूलता-इठलाता सूरजमुखी

इश्क़, जैसे तपती गर्मी में
अनायास बहती शीतल हवा 
और बारिशों में घुलती   
सौंधी मिट्टी की ख़ुश्बू 

इश्क़, जैसे उबलती चाय से 
महकते अदरक-तुलसी
या कि बर्फ़ मौसम में 
धीमी-धीमी सुलगती सिगड़ी 

इश्क़, पंछियों का कलरव 
तितलियों का चटख़ रंग
हरित पत्तियों से लिपटा मोती
और नन्हे बच्चों का हुड़दंग 
 
इश्क़, जैसे एक अदद ज़िंदग़ी में 
क़बूल हुई कोई दुआ 
इश्क़ मैं, इश्क़ तुम  
इश्क़ से ही तो जग रोशन हुआ  
- प्रीति 'अज्ञात'

Thursday, January 18, 2018

चिट्ठियाँ

आदमी को आदमी से मिलाती थीं चिट्ठियाँ 
कभी तोड़तीं तो जोड़ भी जाती थीं चिट्ठियाँ

जो दिल कहे वो हाल बताती थीं टूटकर 
हर राज़ भी सीने में छुपाती थीं चिट्ठियाँ 

कभी ग़म के आँसुओं में भिगोया रुला दिया 
तो दोस्त बन गले भी लगाती थीं चिट्ठियाँ 

ननिहाल या ददिहाल हो, जाने का वक़्त था
छुट्टी के सारे किस्से सुनाती थीं चिट्ठियाँ

होली हो, दीवाली या ईद, पर्व कोई भी
राखी के धागों-सी बंधी, आती थीं चिट्ठियाँ

जो मुस्कुराता प्रेम से देता था हर बधाई  
वो डाकिया कहाँ गया, लाता था चिट्ठियाँ 
-प्रीति 'अज्ञात'

Friday, January 5, 2018

भारतीय हैं हम (?)

भारतीय हैं हम (?)

लड़ते रहे सदियों से धर्म-जाति के नाम पर
और किया बँटवारा अपनी ही पावन धरा का
पीते रहे लहू, आस्था को घोलकर
बढ़ता रहा कारवाँ इस तरह स्वयं पर ही ज़ुल्म का
चुन दिए संस्कार मजबूती से अपनी-अपनी दीवारों में
जब कुछ न बचा तो भगवान की बारी आई 
आह! हम मूर्ख से सोचा करें
किस अलौकिक शक्ति ने ये दुनिया बनाई!

अरे, भूल गये हो तुम
अभी तो कितने हिस्से होने हैं बाक़ी
जाओ खेतों में जाकर, खोदो माटी
उगाओ सब्ज़ियाँ अपनी ही जाति की क्यारियों में
कर दो प्रारंभ एक नई कुटिल परिपाटी
नियम है कि तोड़ सकोगे फल केवल अपनी ही क़ौम के पेड़ों से
बस उन्हें तुम तक ही प्राणवायु का पहुँचना सिखा दो
ऩफरत की बेलों को बढ़ाने के लिए
सींचना होगा उन्हें फलने-फूलने तक
सो, एक डगर अपने-अपने धर्म की उन तक भी पहुँचा दो
उलीच लेना हर नदी का नीर, अपनी ही ज़हरीली नहर में वहीं
दंभ से चमकता चेहरा लिए सींचना अपनी वनस्पति
संभालना किसी और ईश्वर का जल न मिल जाए कहीं!

निकालो फ़रमान, नहीं चलेगी कोई मनमर्ज़ी बहती उन्मुक्त पवन की
बहना होगा उसे भी धर्म और जाति के हिसाब से
देखते हैं, कौन जाति पाती है, कितनी 'हवा'
तुम भी जाँचते रहना उसकी गति अपनी-अपनी शर्म की क़िताब से!
फिर चीर देना मिलकर बेरहमी से, आसमाँ का पूरा जिगर
और निकाल लेना अपने-अपने हिस्से का थोड़ा बादल
कि तुम पर गिरे सिर्फ़ तुम्हारे ही हिस्से की बारिश
मल लो कालिख अम्बर से माँगकर,
या चुरा लो घटाओं का घना काजल!
सुनो, आते हुए सूरज को भी कहते आना
रोशनी की इक-इक किरण बँटेगी अब
हाय, दुर्भाग्य तेरे सीने पर जड़े सितारों का बंदर-बाँट 
ए-चाँद न इतरा, परखच्चे तेरे भी उड़ेंगे सब!

हे पक्षियों ! तुम भी सुन लो कान खोलकर 
तय होगी हर मुंडेर, तुम्हें चुन-चुनकर चहकना होगा
न उतर जाना किसी और के आँगन में 
तुम्हें अपने ही अंगारों पर दहकना होगा
मसले जाओगे सब, तितलियों की तरह
जो लापरवाह-सी, बाग़ में इठलाईं थीं उस दिन
बिखरेगी हर आशा, चीखेंगीं क़ातर उम्मीदें
यूँ चलेगा समय का पहिया, उल्टा प्रतिदिन!

क्या सोचते हो, उठो और आगे बढ़कर
फाँक लो अपने हिस्से का आसमाँ 
निगल लो अपनी ही ज़मीं
पी लो अपनी नदिया की ठंडक
गटक कर अपनी-अपनी रोशनी
अब ओढ़ लो आस्तिकता का नक़ाब
और खड़े हो जाओ
बेशर्मी से अपनी-अपनी गर्दन उठाकर
छुपा देना हर दर्पण, कि वो कहीं टूट ही न जाए घबराकर
फिर कह सको, तो समवेत स्वर में ज़रूर कहना
'हम एक हैं' और 
'मेरा भारत महान'
वाह, महान भारत की महान संतान!
जय-जय-जय हिन्दुस्तान!
© प्रीति 'अज्ञात'

* 2002 की यह रचना, जो कविता तो नहीं है बस क्षुब्धता, निराशा, क्रोध और दुःख से उपजे शब्द भर हैं. कभी-कभी लगने लगता है कि हम समाज और परिस्थितियों के बदलने की कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर बैठते हैं. आशावादी होना जितना अच्छा है, उससे कहीं ज्यादा बुरा है आशाओं का धराशायी होना. शायद हम सब यही दृश्य देखते हुए ही एक दिन चुपचाप गुजर जायेंगे.

Thursday, January 4, 2018

पुस्तक का मनोविज्ञान - 1

पुस्तक का मनोविज्ञान - 1

पुस्तक से जुड़ी विशेष और सच्ची बात यह है कि प्रत्येक लेखक चाहता है कि उसकी पुस्तक न केवल प्रतिष्ठित साहित्यकारों द्वारा पढ़ी जाए बल्कि वे उस पर एक सार्थक प्रतिक्रिया भी अवश्य दें. संभवतः अपनी कृति के प्रति यह मोह ही उसे उन तक अपनी पुस्तकें पहुंचाने के लिए विवश कर देता है क्योंकि वह यह भी समझता है कि बिना नाम / जान-पहचान /प्रकाशक के कहे बिना नामी लोग उसकी पुस्तक खरीदने का सोचेंगे भी नहीं! यद्यपि भेंट की गई पुस्तकें भी प्राप्ति की सूचना से वंचित रह जाती हैं और लेखक संकोचवश मौन धारण कर लेता है. लेकिन अगली बार के लिए वह एक पक्का सबक़ सीख लेता है. यहाँ यह स्वीकार कर लेना भी बेहद आवश्यक है कि एक-दो प्रतिशत ऐसे लोग भी हैं जो इन खेमेबाज़ियों और 'तू मुझे क़बूल, मैं तुझे क़बूल' की प्रथा से दूर रहकर सतत निष्ठा एवं समर्पण से कार्य कर रहे हैं. इनका हार्दिक अभिनन्दन एवं धन्यवाद.

देखने वाली बात यह भी है कि इन वरिष्ठों में से कुछ यह भी चाहते हैं कि आप उनकी पुस्तकें खरीदें, पढ़ें और शीघ्रातिशीघ्र उन पर अपनी प्रतिक्रिया भी दें ही. लगे हाथों प्रचार भी करते जाएँ.
अब सबसे मज़ेदार बात यह है कि वे लोग (मासूम/स्वार्थी दोनों) जो इनके लिए ये सब कुछ करते आए हैं (कभी दिल से कभी जबरन), उनकी पुस्तकों पर 100 रुपए खर्च करना भी इन्हें जंचता नहीं लेकिन ये अपनी पुस्तक के लिए उनसे वही उम्मीद दोबारा रखना बिल्कुल नहीं भूलते.

MORAL-1: प्रतिक्रिया के लिए किसी से अपेक्षा न रखें. आपके पाठक और सच्चे मित्र सदैव आपके साथ रहते ही हैं. 
MORAL-2: पुस्तक मेले में जाएँ तो पुस्तकें खरीदें. उपहार की आशा न रखें. लेखक, पहले से ही प्रकाशक और इस दुनिया से निराश बैठा है. उस पर आप भी....! 
- प्रीति 'अज्ञात'
#विश्व_पुस्तक_मेला 

जी, साब जी

जैसे ही नेता जी चीखे 
अफसर बोले आया जी 
युग बीते हैं इन चरणों में
पर गले नहीं लगाया जी 

तुम जात-पांत के खेला में 
हाय हमको दद्दा भूल गए 
जान निछावर करके हारे 
कुछ भी न हमने पाया जी 

हम मां-बाबा के इकलौते थे 
और जी-जान से पढ़ते थे 
तुम लड़ते संसद में जैसे 
वैसे घर पर भी न करते थे 

अरे, राजा हो या प्यादा हो
पर भाषा की मर्यादा हो
मत भूलो सम्मान किसी का
शिक्षा ने सिखलाया जी

पर राजनीति की कीचड़ ऐसी 
अच्छा-बुरा बराबर है
जिसका, जितना खेल भयंकर 
वही हुआ कद्दावर है 

देशप्रेम की ख़ातिर हमने 
किस्सा ये समझाया जी 
पीर हिया की बाहर निकली 
मन को हल्का पाया जी  
 - © प्रीति 'अज्ञात'