Friday, October 4, 2013

एक संदेश..... 

 तुम व्यस्त हो, उन्हीं रोजमर्रा के 

ऊटपटांग और फालतू कार्यो में उलझे हुए 
जिन्हें दुनिया 'सामान्य दिनचर्या' और बुद्धिजीवी 
'रोटी की जद्दोज़हद' के विशेषणों से
अलंकृत किया करते हैं.
हँसा करते हैंसब एक-दूसरे पर
जबकि खुद भी वही किया करते हैं.
आख़िर क्यूँ हुआ करती है, 
ये बेवजह की भागादौड़ी 
चेहरे पर अनावश्यक तनाव 
माथे पर बनती कुछ लंबी लकीरें  
हर बात पर खीजना-झुंझलाना 
गुस्से से तना चेहरा 
और अवसाद में डूबे शब्द ! 
ये वो चेहरा तो कतई नहीं 
जिसे शीशे के सामने खड़े हो तुम  
घंटों निहारा करते थे 
आजमाते थे, हर वो उत्पाद  
जो और भी खूबसूरत बनाने का  
दावा किया करता था,
इस साँवले से चेहरे को.
फँस जाया करते थे ना, तुम भी 
उन भ्रामक विज्ञापनों के मायाजाल में 
और उनके गीत भी तो कैसे  
खुश होकर गुनगुनाया करते थे. 
फिर अब ऐसा क्या बदल गया है, कि 
खुद की ही फ़िक्र नहीं रही तुम्हें 
लगे हुए हो, उन सबको खुश करने में 
जिन्हें तुम्हारी भावनाओं की कीमत तक नहीं 
जुड़े हैं वो तुमसे, बस स्वार्थवश 
हर हाल में नाखुश ही रहेंगे, सब 
तुम्हारी सौ अच्छाइयों में से एक बुराई 
ढूँढ ही निकालेंगे, देखना तुम
और वक़्त-बेवक़्त मारा करेंगे ताने भी 
आजमाया हुआ है, मैनें तो ये... 
तो फिर क्यूँ ना, रोज सुबह ही 
कुछ पल निकाल के, जी लो  
उसके लिए भी अब
जिसका पूरा दिन निकल जाता है, हंसते हुए 
सिर्फ़ तुम्हारे एक छोटे से संदेश को पाकर
देखो ना, शायद प्रति-उत्तर से 
तुम्हारा दिन भी बन जाए, कुछ ख़ास... 

प्रीति 'अज्ञात'