बीता ये वर्ष भी
ठीक उसी तरह
जैसे कि हर बार
बीतता आया है.
वही विश्वासघात,
थोथी मानसिकता,
घिनौनी सोच,झूठा अपनापन
नक़ली रिश्ते, खोखले वादे
और स्वार्थ-सिद्ध होते ही
जहर उगलते लोग.
मर-मर के देते रहे
साथ जिनका
हाथ उन्हीं ने झटका
सबसे पहले.
आरोप-प्रत्यारोप में
कुचलता गया हर एहसास,
बदल गये रिश्ते,
उखड़ने लगी आवाज़ें,
उलाहने, ताने, बेबसी
और आहत, व्यथित मन.
प्रण इस बार भी वही
कि अब ना करेंगे
किसी पर कभी विश्वास
पर ये भी खबर है
होगा फिर यही सब कुछ
शायद नये रूप में
क्योंकि नहीं ढाल पाए
खुद को, जमाने के रंग में
न हम समझ सके
न ही औरों ने कोशिश की.
पर आज फिर से सुनो
जो कहा है, अब तक
सच्चाई से भला, तुम सब
मुँह मोडोगे कब तक ?
एक ही ज़िंदगी है, जो
फिसल रही है, शनै:-शनै:
अपने अंतिम पड़ाव की ओर.
हो सके, तो जी लो इसे
वरना यूँ ही गुजर जाएगी,
ये भी..................हाँ,
ठीक तुम्हारी-मेरी तरह....!
प्रीति 'अज्ञात'
बहुत सुन्दर .
ReplyDeleteनई पोस्ट : रंग और हमारी मानसिकता
शुक्रिया !
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