Tuesday, April 26, 2016

मौन

'मौन'...
अपनी ही आवाज़ के विरुद्ध
एक कमजोर आह्वान!
'आवाज़' जो सुनकर भी
तय न कर सकी
ध्वनि तरंगों के उस पार का
सहमा-सा रास्ता
कुछ शब्द, गले में 
अटके हुए अब भी
भावनाओं के झूले में
झूलते, उलझ रहे
अपनी ही बनाई
अदृश्य बेड़ियों के जाल में

कुछ स्मृतियाँ
सिसकियाँ बन बिखरती हुईं
अकेले में
पलकें दबाकर सोख रहीं
उनके भीतर की नमी
चल रही श्वांस
धड़कनों का हर सुर
गूँजता हुआ देता 
कर्कश ध्वनि
एक पसरा हुआ सन्नाटा
किसी मज़बूत पत्थर के
अहंकार तले दबी हँसी
ओढ़ लेती है
विवशता का आवरण

'मौन' कुछ नहीं
एक विश्वासघात है
अपने ही कायर मन से,
जो बोलता तो बहुत है
पर कहता नहीं
हाँ, ये न आध्यात्म है
और न पूजा
'मौन' ज़रूरी नहीं
इंसान की 'मजबूरी' है!
- प्रीति 'अज्ञात'

अकवि (अकविता)

वो लिख चुका था
अपनी पहली खिलखिलाती
खुशहाल कविता
फिर उसने लिखी
सामाजिक, राजनीतिक,
मुद्दों पर प्रहार करती
गम्भीर कविता
यकायक निकलने लगी
गुदगुदाती, हंसाती 
चटखारेदार, मस्ती वाली
बैठी ठाली, नाकारा,
निकम्मी कविता
.....हँसते रहे सब!  

बदला समय
बनी चमचमाती मुलाक़ाती
जुनूनी कविता 
चहकने लगी इश्क़ में 
बावली, फुदकती, इठलाती
मासूम कविता
घेरती रहीं यादें और 
बरसने लगी
कविताओं पर कविता
......उठे सवाल!

गिरे मुखौटे तो
निराश हो फूटी
दर्द में डूबी,चरमराती
उदास कविता
वो परोसता रहा वर्षों तक
ह्रदय की हर उलझन औ'
ज़ख्म की नुमाइश करती
बेबस, लाचार, हताश
रुदाली कविता
......लूटी वाहवाही!

थका, ठहरा इक दिन
फिर उसने लिखनी चाही  
अपनी आखिरी कविता
वो लिखता रहा
लिखे ही जा रहा 
लिख रहा अब भी
हारकर अपने-आप से 
..... आसपास चुप्पी पसरी है इन दिनों!
- प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, April 23, 2016

थोड़ा-थोड़ा...

कविता, गीत, गद्य 
तितर-बितर अहसास 
बालपन से ही 
साथी पुराने 
थामा मेरा हाथ 
नहीं देते धोखा कभी 
चुन लेती हूँ शब्द 
नमक की तरह 
इच्छानुसार 
अपने विषय,
अपनी मर्ज़ी से 
समझते हैं ये सब
बख़ूबी मुझे!

फड़फड़ाता मन 
उठाता सवाल 
जन्मती इच्छायें 
उम्मीदों की ठिठोली 
हंसती कभी खुद पर 
तो कभी मायूस हो 
बेबस मौन ओढ़ लेती
सच और झूठ के
अंतर्द्वंद्व में घायल 
अनर्गल स्वप्न 
बड़बड़ाते हुए 
अपनी ही श्वासों की 
गलतफहमियाँ से 
टूट जाते हैं
हर सुबह बेआवाज

कुछ लफ्ज़ बिखरते
कोरे पन्नों पर
और यूँ ही 
कभी मरती तो कभी 
जी लेती हूँ इनमें 
थोड़ा-थोड़ा 
- प्रीति 'अज्ञात' 

Monday, April 4, 2016

कौवे

डूबती साँसों की निगरानी करते 
समझदारी के कौवे अब  
सबकी निगाहों से बचकर 
लीलने लगे हैं ज़िंदगी क़तरा-क़तरा  

वो जिम्मेदारियों को 
अपनी सलामती की जिम्मेदार ठहरा
निश्चिंत होना चाहती है  
कि इनके मजबूत हाथों ने ही 
गाड़े रखा होगा उसे जमीन में कहीं 

चंद तस्वीरों पर
ठहरी हुई निगाहें
खिसियानी बिल्ली-सी 
शुक्रगुज़ार होने लगती हैं 
उन ऋणों की भी 
जिनसे मुक्त होना बाकी है अभी 

नहीं बनना उसे महान 
मर्यादा के खोखले 
सुरक्षा-कवच की आड़ में
जो चीर देता है
भीतर-ही-भीतर

जिम्मेदारियाँ भी ख़ैर.. 
कोरी कायरता पर
आह भरते हुए 
चंद शब्दों की चाशनी का
लिजलिजा लेप ही तो हैं
 
न रहे भरम का चिह्न भी शेष 
तो आवश्यक है  
इसी जन्म में
हर ऋण से मुक्त हो जाना 

पुनर्जन्म, फिर मिलेंगे,
रिश्ता जनम-जनम का,
पक्का वादा, सच्चा प्रेम 
सब विषय हैं असल चरित्रों की
झूठी, भ्रामक कविताओं के
वास्तविकता के धरातल पर 
ये ठगी औेर
भावनात्मक खेल के सिवा
कुछ भी नहीं!

सब कुछ जानते-समझते हुए 
जीना होगा उसे फिर भी
जब तक हर बोझ
हल्का न हो जाए
या फिर ढोना भारी न लगे!
- प्रीति 'अज्ञात'