कहाँ टिक पाता है, कोई
भीड़भाड़ वाले माहौल में
ज़्यादा देर तक.
इक बेचैनी सी
होने लगती है
और घुटता है दम
लड़खड़ातीं हैं साँसें
छटपटाता है मन
और तड़प उठता है,दिल
तलाशने को एक ऐसी जगह
जहाँ जीने के लिए शर्तें न हों
न ही सीमाओं का डर हो
कि जिनको लांघ पाने का भय
मार देता है, जीते जी ही.
जीवन के कटु सत्य
दिलवा ही देते हैं
तिलांजलि, हर रिश्ते की
और रह जाती है
एक कसक बन
कुछ यादें और उम्मीदें
मायूस हो, लौट आना
पड़ता है.
उस वक़्त
उस वक़्त
याद आता है
वो रेत का समंदर
जहाँ मीलों दूर
एक चेहरा तक नज़र
नहीं आता.
पर फिर भी मिलता है
बेहद सुकून, अपनापन
उस एकाकीपन में ही.
एक रिश्ता सा जुड़ गया हो ज्यूँ
हाथों से फिसलती
रेत के साथ
जिसे मुट्ठी में थामने की
हर अधूरी कोशिश,
बयाँ करती है
नाक़ाम रिश्ते की
एक-एक कमजोरी
और उसी के बनते-बिगड़ते टीले
अहसास दिलाते हैं
स्वप्न-महल के,अनायास ही
टूटकर बिखर जाने का
चमचमाती रेत,
साक्षी हुआ करती है
जीवन के खूबसूरत पलों की.
एकांत, सुलझाना चाहता है
कई अबूझ पहेलियाँ
और मृगतृष्णा याद दिलाती है
अंजान लम्हों की तलाश में भटकते
इस पागल मन की.
यादों का अंतहीन 'रेगिस्तान'
रोज ही सुनाता है, यूँ तो
वही एक सी कहानी
कहने को वहाँ जाकर
हम सभी हो जाते हैं
दुनिया से एकदम अलग
लेकिन पा लेते हैं, ख़ुद को
अपने-आप के
बेहद करीब !
प्रीति 'अज्ञात'
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