क्यूँ अब आसमाँ पर उन्हीं मायूसियों का डेरा है.
कि चल रही थी ज़िंदगी,राशन की इक कतार सी,
देखी ना थी वो दुनिया कभी,जो वहाँ उस पार थी.
आहटें किसकी सुनूँ मैं, कौन से अब रंग चुनूँ मैं,
ऊन के गोले सी उलझी ख्वाहिशों से क्या बुनूं मैं.
दस्तकें जब भी हूँ सुनती, मोम जैसी हूँ पिघलती,
ज़िंदगी बहुरुपिया बन, हर कदम पे क्यूँ है मिलती.
रेत पर अब पग हैं धंसते, हर कदम गिरते- संभलते
एक पल मोती सा लगता, दूसरे पल आँख मलते.
छूट जाए जो भी थामा, किस्मत ना अपने साथ थी,
जीत गई दुनिया लो फिर से, अपने हिस्से हार थी.
प्रीति 'अज्ञात'
ज़िन्दगी बहरूपिया बन....वाह
ReplyDeleteThanks :)
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