स्कूल के दिनों में कभी लिखी गयी ये पंक्तियाँ, आज अचानक ही डायरी में मिल गईं. पढ़कर बहुत हँसी भी आई. 'माँ' पर लिखने को कहा गया था, और मैंने ये लिखा.....
** माँ **
नहीं कहती वो कभी भी,कि -
टी. वी. देखो ज़रा पास से
और आज स्कूल मत जाओ
बाहर निकलो ठंड में, बिना जैकेट
और आज मत नहाओ
और उनके साथ खेलने जाओ
हाथ धोना ज़रूरी नहीं बिल्कुल
और चलो,पलंग पर बैठकर खाओ !
वो तो कहती है-
आँखें दर्पण हैं जीवन का
ख्याल रखा करो तुम इनका
शिक्षा देन है संस्कृति की
बनो तुम भी जगमगाता सिक्का
सफाई का रहे पूरा ध्यान
और रहो हर मौसम में ज़रा संभल के
पर देना ना भूलना कभी
सभी को उनके हक़ का पूरा हिस्सा.
उसे मालूम है, सब कुछ -
ये जीवन उसने ही तो दिया है
संवारना बस उसे ही आता है
जीते रहें हम बेफिक्री से और
दर्द उसके आँचल में समा जाता है
काम के बोझ से थककर, ख़ुदा ने सोचा
मेरी बीमारी में कौन देखेगा ये दुनिया
चलो, सबको एक-एक 'माँ' देने में
मेरा भी कुछ नहीं चला जाता है.
प्रीति जैन
कक्षा-९
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