Tuesday, December 16, 2014

'मौत' कितनी सस्ती ! 

ये जमीन तेरी 
और ये मेरी
पर हम दोनों रहेंगे , कहीं और
हाँ, अपने-अपने घरों में 
बैठकर बनानी होगी योजना 
एक-दूसरे की मिल्क़ियत पर 
कब्ज़ा करने की !

'गहन सोच' का विषय !
कौन किस पर कब 
और कैसे करेगा प्रहार 
लाने होंगे, गोले-बारूद, बम 
सभी अत्याधुनिक हथियार 
मैं जागूँगा कई रातें 
तुझे उड़ाने के लिए 
पर मुझे भी रहना होगा होशियार !

उनके अपने क़ायदे-क़ानून 
इनकी अपनी शर्तें 
इन्हें उनका तरीका नामंज़ूर 
उन्हें इनसे ऐतराज़ 
चला रहे अंधाधुंध गोलियाँ 
वहशी, दरिंदे, इंसानों के भेस में 
क्या जीतना है ?
किसका सच ? 
किसके लिए ?
फायदा किसे ?
नुकसान किसका ?

सरकारें परेशान, लोग हैरान 
अचानक बढ़ा दी गई 
सीमा पर चौकसी 
'बड़े' लोगों की सुरक्षा में 
हुई और बढ़ोतरी 
सब निश्चिन्त, सुरक्षित 
अपने प्रायोजित तंत्रों के  खोल में !

और दूर कहीं से आतीं 
ह्रदय-विदारक चीखें 
सुना तुमनें आर्तनाद ?  
इंसानी जद्दोज़हद से अनजान,
निर्दोष, मासूम बचपन 
अभी ज़ख़्मी हुआ 
गिड़गिड़ाता रहा बिलखकर 
और फिर निढाल हो ,
सो गया 
चुनिंदा, बेबस,लाशों की शक़्ल में !

* 'मौत' तुम कितनी सस्ती हो चुकी हो !
  लगता है अब तुम भी बिक चुकी हो ! 

- प्रीति 'अज्ञात'