Tuesday, December 31, 2013

ग़ज़ल


कुछ तो है कहीं, ये जो थोड़ा प्यार सा है
नशा है तेरा, चाहत या इक ख़ुमार सा है.

मिला करता है मचलकर रोज ही तू मुझसे 
रहता बेवक़्त फिर भी तेरा इंतज़ार सा है.

न बीता कोई भी लम्हा इस तरह पहले 
जिस तरह दिल अब मेरा बेक़रार सा है.

महसूसा तुझे मुझमें ही कहीं हर मर्तबा
बहता मेरी रग-रग में तेरा दीदार सा है.

छू गयी आकर कुछ ऐसे ये दस्तक तेरी
इन साँसों में ही इस जीस्त का दरबार सा है.

तू ही सुकून, है ख़्वाहिश, चैनो-अमन मेरा
मेरी हर नब्ज़ को समझता चारागार सा है.

प्रीति 'अज्ञात'

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