Wednesday, May 14, 2014

तुम स्त्री हो... ?

बरसों से दबी हुई
रिवाजों के मलबे तले
समाज की बनाई, आग्नेय चट्टानों के बीच
पिसती गई परत-दर-परत
रिसता रहा लहू अपने ही
लहुलुहान वजूद से
झेलीं अनगिनत यातनाएँ भीं.
तमाम यंत्रणाओं और प्रताड़नाओं के बीच 
जब भी उठना चाहा
होता रहा, देह पर अतिक्रमण.

सुरक्षा के नाम पर हुई नज़रबंद
चलीं अविश्वास की अनगिनत आँधियाँ भी
जलाया अपनों की ही क्रोधाग्नि ने
रिश्तों को जीत लेने का
हर प्रयत्न अब असफल ही था
कि हर उठती कोशिश को
नियति का भीषण प्रहार भेद देता
तमाम झंझावातों के बीच
आख़िर कुचल गयी आत्मा भी
धंसता गया, तन-मन
उन्हीं दो पाटों के बीच.

समय ने और भी गहरा दिए
गर्त के बादल
धूल-धूसरित शरीर अब
खिलता नहीं पहले सा
'मौन' ही बन गया पहचान उसकी
शायद ये प्रायश्चित है
उसके 'होने' का
लेकिन डर है...
कहीं उसे इंतज़ार तो नहीं
कि कोई आकर ढूँढ निकालेगा उसे
उत्खनन में
फिर पा लेगी वो एक नया नाम
हृदय थोड़ा अचंभित और द्रवित हो
चीत्कार ही उठा सहसा
तुम 'स्त्री' हो या 'जीवाश्म'..... ??

प्रीति 'अज्ञात'

Saturday, May 10, 2014

चलो तब ही सही.......


न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............!

तू नही अजनबी वहाँ होगा
देख तुझको, सारे पंछी चहचहाएँगे
झुकेगी फूलों से लदी हुई हरेक डाली 
पुष्प शरमाएँगे फिर खुद ही बिखर जाएँगे
करेंगी स्वागत तेरा बाग़ की सब तितलियाँ
ओस के पत्तों में, आँखों की नमी पाओगे.
न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............

खोलना लकड़ी की पुरानी-सी अलमारी को
मिलेगी उसमें छुपी इक वहाँ तस्वीर तेरी
उकेरी थी बहुत सी यादें मगर
उन्हीं में ख़ास ये अमानत है मेरी 
फिर सुनना बैठकर खामोशी को
संग अपना ही गीत गुनगुनाओगे
न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............!

बैठ सोफे पे पढ़ना फिर वहीं वो डायरी भी
मिलेगा पन्नों में सहमा हुआ सा इक ही ख़्वाब
जो हो सके तो फिर समझ जाना
तेरे हर सवाल का लिखा है, वहीं पर ही जवाब
पलटकर देखना अब पीछे की दीवार पर तुम
मेरी तस्वीर में हंसता मुझे तुम पाओगे
न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............!

यूँ कहने को तो है अभी भी बसा घर ये मेरा
हरेक शै में है पिघला हुआ बस अक़्स तेरा
न दिखूँगी तुझे पर तू उदास ना होना
मेरी यादों को जीना, साथ उनके मत रोना
निहारोगे जब सोचते से, खुद को दर्पण में
मैं मुस्काऊँगी वहाँ और तुम ही चौंक जाओगे.
न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............!

बसे हो बन के ज़िंदगी घर की
हाँ, तुम्हीं तो हो जान मेरे इस चमन की
जिसे हो ढूँढते-फिरते, जुदा हुई  ही नहीं
तेरी इन धड़कनों के संग अभी तक है वहीं
जो तलाशोगे उसे यूँ बेतरहा
हर जगह खुद से ही टकराओगे
न रहूंगी कभी और घर मेरे तुम आओगे
चलो तब ही सही, वादा तो निभा जाओगे............!

प्रीति 'अज्ञात'