Thursday, May 10, 2018

यूँ ही ...

चलो इस तरह भी जिया जाए 
ख़्वाब को साथ न लिया जाए 

ग़म की औक़ात कुछ नहीं रहती 
घूँट तबस्सुम से जो पिया जाए 

अपनी ख़ातिर ही जीना क्या जीना
ग़ैरों के लिए कुछ तो किया जाए

मुल्क़ से इश्क़ भी इबादत है 
क़र्ज़ इसका चुका दिया जाए 

गिला ज़माने से कब तक करना 
अपने ज़ख्मों को ख़ुद सिया जाए

नफ़रतों का कुछ नहीं हासिल 
चलो इंसान बन जिया जाए 
- © प्रीति 'अज्ञात'

Friday, May 4, 2018

Breast-cancer

मेरे कितने अपने चेहरे
जिन्हें लील लिया है तुमने 
और वो भी जिनकी उपस्थिति 
अब भी जीने की आस फूँकती है मुझमें 
हर बार ही गुजरी हूँ क़रीब से 
उनकी असहनीय पीड़ा में    
देखा है बेबस आँखों ने  
मातृत्व के झरने को कटते हुए 
जैसे कोई बहता हुआ सोता 
दूर कर दिया गया हो अचानक  
अपनी उद्गम-स्थली से 

तुम्हारी विशाल बहुगुणित कोशिकाओं का 
निवारण ही एकमात्र किस्सा नहीं है, विज्ञान का 
यह मांस-पेशियों को निर्ममता से कुरेदता
सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है  
जिसके दर्द की शिराएँ नहीं होती
किसी एक हिस्से तक ही सीमित 
काले घने केशों का पतझड़ और 
उभारों का देह में ही 
धप्प-से विलुप्त हो जाना
तो बस......... 
बाहरी बातें भर हैं, पर 
दुःख के दरिया को भीतर तक
मसल-मसल घोंटती है यह प्रक्रिया

जाता है हाथ स्वत: ही उस विलीन भाग पर
हृदय बिलखता है चीख-चीखकर
और लाख ना-नुकुर के बाद भी
बंजर हुई भूमि पर 
सिलिकॉन की छोटी गद्दियाँ 
बना ही लेती हैं अपना आशियाना

यूँ भी होता है उसके बाद कभी कि 
रंगीन स्कार्फ़ की छाँव तले 
घुँघराले नन्हे बालों की आमद देख 
एक बहादुर स्त्री दर्पण में फिर मुस्कुराती है
सँभालने लगती है अपना बसेरा   
उम्मीद के मसनद पर टिका जीवन
कभी ठहरता, तो कभी चलता है अनवरत
इधर बच्चों की सपनीली दुनिया में 
अठखेलियाँ करता है चमचमाता भरोसा 
कि माँ अभी जीवित है!
- प्रीति 'अज्ञात'
#Breast-cancer