Thursday, November 14, 2013

जीते-जी ना जान सके जो

जीते-जी ना जान सके जो
वो मरने पे क्या जानेंगे

एक मिनट की चर्चा होगी

बस दो पल का ही मौन रहेगा
सोच ज़रा मन मेरे तू अब
सच में तेरा कौन रहेगा
पल में नज़रें उधर फेरकर
वो दुनिया नई बसा लेंगे
जीते-जी ना.........

है इस जग की ये रीत यही

दुर्बल की हरदम हार हुई
कड़वी-छिछली इस बस्ती में
झूठों की जय-जयकार हुई
सच्चाई की क़ब्र खोदकर
सब तुझको उसमें गाड़ेगे 
जीते-जी ना......... 

दर्द भरा है सबका जीवन

दर्द ही सबने बाँटा है
चार पलों की खुशियाँ देकर
बस थमा दिया सन्नाटा है
अपनापन भी दे न सके जो
फिर उनसे हम क्या पा लेंगे
जीते-जी ना..........


जिसको अपना तूने समझा 
सब कुछ तो तुमने वार दिया
कैसे चुनकर उन 'अपनों' ने
अब तुझको ही दुत्कार दिया
बीच भंवर में झूले नैया
और ख़ुद ही हम डुबा लेंगे
जीते-जी ना.........

एक दिवस की पूजा होगी

तीन दिवस का रोना होगा
फिर तेरे फोटो से छिपता
घर का कोई कोना होगा
अब, राज किया जिसने उसकी
शुद्धि करने की ठानेंगे

जीते-जी ना जान सके जो

वो मरने पे क्या जानेंगे

प्रीति 'अज्ञात'

1 comment:

  1. मैंने गाकर देखा आपकी कविता को...सचमुच भाव भी सुंदर है और लय मे भी है...। बहुत बढिया..

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