झुक जाया करती हूँ
अक़सर ही, अपनों की ख़ातिर
मना ही लेती हूँ अपने
उन रूठे रिश्तों को
माँग लेती हूँ माफ़ी हाथ जोड़
कि छोड़ो, जो हुआ सो हुआ.
नहीं होने पर कोई भी ग़लती
मनाया है तुम्हें, ये सोचकर
कि मेरी खामोश उदासी
तुम्हें कितना दुख देगी.
देती हूँ सफाइयाँ
औरों की तरफ से
कि तुम मायूस न रहो.
सींचा है मैंने भी
अपनी प्रेम रूपी बगिया को
विश्वास और स्नेह-जल से.
नहीं खड़ी कर पाई मैं
अहंकार की दीवारें
और उसूलों की छत
क्योंकि खाली कमरे में
दम घुटता है मेरा.
नहीं पहचान पाती अब भी
नक़ाब में छुपे चेहरों को
दिल के रिश्तों में अक़सर
हार ही जाया करती हूँ मैं.
सबका दोषी बनने के बाद
चली तो जाऊंगी मैं इक दिन.
पर याद रखना, तुम सब फिर
रोओगे चीख-चीखकर मेरे लिए
नहीं आ पाऊँगी, मैं तब
चाहकर भी....
पोंछने तुम्हारे आँसू
पर दुख न करना, और
उसी वक़्त, उठाकर देख लेना
मेरी इस तस्वीर को
मैं तब भी, तुम्हें
यूँ ही मुस्कुराती मिलूंगी....
प्रीति "अज्ञात'
No comments:
Post a Comment