वक़्त की तंग गलियों से निकल,
फिर उसी दोराहे पर आकर खड़े हैं हम.
जहाँ सच और झूठ की दीवारों पर
विश्वास और अविश्वास की परछाईं है.
ख़्वाबों को मुट्ठी में बाँधे हुए,
जज़्बात की हालात से कैसी ये लड़ाई है?
कभी बनती और कभी बिगड़ती सी,
आसमाँ पर बादलों की कितनी तस्वीरें !
कैसे खो सी जाती हैं धुआँ होकर,
जैसे ज़िंदगी से मेरी तक़दीरें !
आज फिर भीगी पलकें हैं, और दिल में
वही ख़लिश सी छाई है.....
रुँधे गले से कंपकँपाते शब्द कहते आकर
इस ज़ंग में भी तूने मात ही खाई है.
वक़्त का जोर या बदक़िस्मती का शामियाना,
अपनी तो हर हाल में रुसवाई है.
साथ देने को तैयार खड़ी खामोश सी ये 'ज़िंदगी'
क्यूँ भला अब तक ना हमें रास आई है ???
प्रीति 'अज्ञात'
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