Wednesday, April 22, 2020

सुनो, पृथ्वी



सुनो, पृथ्वी
मीलों चली हूँ तुम्हारी हरियल सी 

कोमल छाँव में
और कितनी ही बार महसूस की 

तुम्हारे क़लेजे की उमस 
तुम्हारे दर्द का चटकना 
और भीतर ही भीतर 
घंटों घुमड़ने की आवाज़ भी
पहुँची है मुझ तक सैकड़ों बार 
देखा है उस सैलाब को भी  
जब -जब पछाड़ें खाकर डूबता था तुम्हारा मन

सुनो, पृथ्वी  
मैं जानती हूँ कि तुम 
अपना दुःख किसी से कहती नहीं 
हाँ, माना कि
स्नेह और सहन की ये जो
अद्भुत क्षमता है न तुममें
वह अपार है, बेमिसाल है
पर, सुनो तुम और समझो भी कभी
कि तुम्हारी क्षत विक्षत सीमाओं की परिधि में
घूमते हुए चूर हो अब
थककर हारने लगी हूँ मैं यह सब देख 

मैं कहती हूँ तुमसे आज
कि सुनो, तुम आज मेरी गोदी में सिर रख
फूटकर रो क्यों नहीं लेतीं
पर उससे पहले यारा
मैं तुम्हारे गले लग
तुम्हें अपनी बॉंहों में भींच
अदा करना चाहती हूँ शुक्रिया
और तुम्हारी ही बनाई इस बगिया के
सबसे खूबसूरत फूल तुम्हें देते हुए
चूम लेना चाहती हूँ 
तुम्हारा कोमल हाथ
- प्रीति अज्ञात