भारतीय हैं हम (?)
लड़ते रहे सदियों से धर्म-जाति के नाम पर
और किया बँटवारा अपनी ही पावन धरा का
पीते रहे लहू, आस्था को घोलकर
बढ़ता रहा कारवाँ इस तरह स्वयं पर ही ज़ुल्म का
चुन दिए संस्कार मजबूती से अपनी-अपनी दीवारों में
जब कुछ न बचा तो भगवान की बारी आई
आह! हम मूर्ख से सोचा करें
किस अलौकिक शक्ति ने ये दुनिया बनाई!
अरे, भूल गये हो तुम
अभी तो कितने हिस्से होने हैं बाक़ी
जाओ खेतों में जाकर, खोदो माटी
उगाओ सब्ज़ियाँ अपनी ही जाति की क्यारियों में
कर दो प्रारंभ एक नई कुटिल परिपाटी
नियम है कि तोड़ सकोगे फल केवल अपनी ही क़ौम के पेड़ों से
बस उन्हें तुम तक ही प्राणवायु का पहुँचना सिखा दो
ऩफरत की बेलों को बढ़ाने के लिए
सींचना होगा उन्हें फलने-फूलने तक
सो, एक डगर अपने-अपने धर्म की उन तक भी पहुँचा दो
उलीच लेना हर नदी का नीर, अपनी ही ज़हरीली नहर में वहीं
दंभ से चमकता चेहरा लिए सींचना अपनी वनस्पति
संभालना किसी और ईश्वर का जल न मिल जाए कहीं!
निकालो फ़रमान, नहीं चलेगी कोई मनमर्ज़ी बहती उन्मुक्त पवन की
बहना होगा उसे भी धर्म और जाति के हिसाब से
देखते हैं, कौन जाति पाती है, कितनी 'हवा'
तुम भी जाँचते रहना उसकी गति अपनी-अपनी शर्म की क़िताब से!
फिर चीर देना मिलकर बेरहमी से, आसमाँ का पूरा जिगर
और निकाल लेना अपने-अपने हिस्से का थोड़ा बादल
कि तुम पर गिरे सिर्फ़ तुम्हारे ही हिस्से की बारिश
मल लो कालिख अम्बर से माँगकर,
या चुरा लो घटाओं का घना काजल!
सुनो, आते हुए सूरज को भी कहते आना
रोशनी की इक-इक किरण बँटेगी अब
हाय, दुर्भाग्य तेरे सीने पर जड़े सितारों का बंदर-बाँट
ए-चाँद न इतरा, परखच्चे तेरे भी उड़ेंगे सब!
हे पक्षियों ! तुम भी सुन लो कान खोलकर
तय होगी हर मुंडेर, तुम्हें चुन-चुनकर चहकना होगा
न उतर जाना किसी और के आँगन में
तुम्हें अपने ही अंगारों पर दहकना होगा
मसले जाओगे सब, तितलियों की तरह
जो लापरवाह-सी, बाग़ में इठलाईं थीं उस दिन
बिखरेगी हर आशा, चीखेंगीं क़ातर उम्मीदें
यूँ चलेगा समय का पहिया, उल्टा प्रतिदिन!
क्या सोचते हो, उठो और आगे बढ़कर
फाँक लो अपने हिस्से का आसमाँ
निगल लो अपनी ही ज़मीं
पी लो अपनी नदिया की ठंडक
गटक कर अपनी-अपनी रोशनी
अब ओढ़ लो आस्तिकता का नक़ाब
और खड़े हो जाओ
बेशर्मी से अपनी-अपनी गर्दन उठाकर
छुपा देना हर दर्पण, कि वो कहीं टूट ही न जाए घबराकर
फिर कह सको, तो समवेत स्वर में ज़रूर कहना
'हम एक हैं' और
'मेरा भारत महान'
वाह, महान भारत की महान संतान!
जय-जय-जय हिन्दुस्तान!
- © प्रीति 'अज्ञात'
* 2002 की यह रचना, जो कविता तो नहीं है बस क्षुब्धता, निराशा, क्रोध और दुःख से उपजे शब्द भर हैं. कभी-कभी लगने लगता है कि हम समाज और परिस्थितियों के बदलने की कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर बैठते हैं. आशावादी होना जितना अच्छा है, उससे कहीं ज्यादा बुरा है आशाओं का धराशायी होना. शायद हम सब यही दृश्य देखते हुए ही एक दिन चुपचाप गुजर जायेंगे.
लड़ते रहे सदियों से धर्म-जाति के नाम पर
और किया बँटवारा अपनी ही पावन धरा का
पीते रहे लहू, आस्था को घोलकर
बढ़ता रहा कारवाँ इस तरह स्वयं पर ही ज़ुल्म का
चुन दिए संस्कार मजबूती से अपनी-अपनी दीवारों में
जब कुछ न बचा तो भगवान की बारी आई
आह! हम मूर्ख से सोचा करें
किस अलौकिक शक्ति ने ये दुनिया बनाई!
अरे, भूल गये हो तुम
अभी तो कितने हिस्से होने हैं बाक़ी
जाओ खेतों में जाकर, खोदो माटी
उगाओ सब्ज़ियाँ अपनी ही जाति की क्यारियों में
कर दो प्रारंभ एक नई कुटिल परिपाटी
नियम है कि तोड़ सकोगे फल केवल अपनी ही क़ौम के पेड़ों से
बस उन्हें तुम तक ही प्राणवायु का पहुँचना सिखा दो
ऩफरत की बेलों को बढ़ाने के लिए
सींचना होगा उन्हें फलने-फूलने तक
सो, एक डगर अपने-अपने धर्म की उन तक भी पहुँचा दो
उलीच लेना हर नदी का नीर, अपनी ही ज़हरीली नहर में वहीं
दंभ से चमकता चेहरा लिए सींचना अपनी वनस्पति
संभालना किसी और ईश्वर का जल न मिल जाए कहीं!
निकालो फ़रमान, नहीं चलेगी कोई मनमर्ज़ी बहती उन्मुक्त पवन की
बहना होगा उसे भी धर्म और जाति के हिसाब से
देखते हैं, कौन जाति पाती है, कितनी 'हवा'
तुम भी जाँचते रहना उसकी गति अपनी-अपनी शर्म की क़िताब से!
फिर चीर देना मिलकर बेरहमी से, आसमाँ का पूरा जिगर
और निकाल लेना अपने-अपने हिस्से का थोड़ा बादल
कि तुम पर गिरे सिर्फ़ तुम्हारे ही हिस्से की बारिश
मल लो कालिख अम्बर से माँगकर,
या चुरा लो घटाओं का घना काजल!
सुनो, आते हुए सूरज को भी कहते आना
रोशनी की इक-इक किरण बँटेगी अब
हाय, दुर्भाग्य तेरे सीने पर जड़े सितारों का बंदर-बाँट
ए-चाँद न इतरा, परखच्चे तेरे भी उड़ेंगे सब!
हे पक्षियों ! तुम भी सुन लो कान खोलकर
तय होगी हर मुंडेर, तुम्हें चुन-चुनकर चहकना होगा
न उतर जाना किसी और के आँगन में
तुम्हें अपने ही अंगारों पर दहकना होगा
मसले जाओगे सब, तितलियों की तरह
जो लापरवाह-सी, बाग़ में इठलाईं थीं उस दिन
बिखरेगी हर आशा, चीखेंगीं क़ातर उम्मीदें
यूँ चलेगा समय का पहिया, उल्टा प्रतिदिन!
क्या सोचते हो, उठो और आगे बढ़कर
फाँक लो अपने हिस्से का आसमाँ
निगल लो अपनी ही ज़मीं
पी लो अपनी नदिया की ठंडक
गटक कर अपनी-अपनी रोशनी
अब ओढ़ लो आस्तिकता का नक़ाब
और खड़े हो जाओ
बेशर्मी से अपनी-अपनी गर्दन उठाकर
छुपा देना हर दर्पण, कि वो कहीं टूट ही न जाए घबराकर
फिर कह सको, तो समवेत स्वर में ज़रूर कहना
'हम एक हैं' और
'मेरा भारत महान'
वाह, महान भारत की महान संतान!
जय-जय-जय हिन्दुस्तान!
- © प्रीति 'अज्ञात'
* 2002 की यह रचना, जो कविता तो नहीं है बस क्षुब्धता, निराशा, क्रोध और दुःख से उपजे शब्द भर हैं. कभी-कभी लगने लगता है कि हम समाज और परिस्थितियों के बदलने की कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर बैठते हैं. आशावादी होना जितना अच्छा है, उससे कहीं ज्यादा बुरा है आशाओं का धराशायी होना. शायद हम सब यही दृश्य देखते हुए ही एक दिन चुपचाप गुजर जायेंगे.
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