आदमी को आदमी से मिलाती थीं चिट्ठियाँ
कभी तोड़तीं तो जोड़ भी जाती थीं चिट्ठियाँ
जो दिल कहे वो हाल बताती थीं टूटकर
हर राज़ भी सीने में छुपाती थीं चिट्ठियाँ
कभी ग़म के आँसुओं में भिगोया रुला दिया
तो दोस्त बन गले भी लगाती थीं चिट्ठियाँ
ननिहाल या ददिहाल हो, जाने का वक़्त था
छुट्टी के सारे किस्से सुनाती थीं चिट्ठियाँ
होली हो, दीवाली या ईद, पर्व कोई भी
राखी के धागों-सी बंधी, आती थीं चिट्ठियाँ
जो मुस्कुराता प्रेम से देता था हर बधाई
वो डाकिया कहाँ गया, लाता था चिट्ठियाँ
-प्रीति 'अज्ञात'
कभी तोड़तीं तो जोड़ भी जाती थीं चिट्ठियाँ
जो दिल कहे वो हाल बताती थीं टूटकर
हर राज़ भी सीने में छुपाती थीं चिट्ठियाँ
कभी ग़म के आँसुओं में भिगोया रुला दिया
तो दोस्त बन गले भी लगाती थीं चिट्ठियाँ
ननिहाल या ददिहाल हो, जाने का वक़्त था
छुट्टी के सारे किस्से सुनाती थीं चिट्ठियाँ
होली हो, दीवाली या ईद, पर्व कोई भी
राखी के धागों-सी बंधी, आती थीं चिट्ठियाँ
जो मुस्कुराता प्रेम से देता था हर बधाई
वो डाकिया कहाँ गया, लाता था चिट्ठियाँ
-प्रीति 'अज्ञात'
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