सरकारें बनतीं-बिगड़तीं
गिरतीं- संभलतीं
पर उठकर कभी खड़ा ही न हो पाता
बेबस, लाचार आदमी
मुद्दों की धीमी-धीमी आँच पर
दशकों से सिक रहीं
गुलाबी वादों की करारी रोटियाँ
समयानुसार उठती है फुँकनी
पहुँचती है मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारे तक
कि लौ दिखती रहे
और आँतों से गलबहियाँ कर
चिपकी रहे बुभुक्षा
पर अब तक अटकी हुई
आशाओं के शुष्क गले में
आश्वासनों की सूखी सैकड़ों हड्डियाँ
जिन्हें बारम्बार निगलने की कोशिश में
धँसता जा रहा आदमी
उम्मीद की पसरी आँखें
अब भी चूल्हे पर
कि कभी तो परोसी जायेंगीं रोटियाँ
इधर निरीह, झुलसी
ग़रीबी का उदास चेहरा लिए
बुझती लकड़ियाँ
अन्न की प्रतीक्षा में
मिट्टी की चहारदीवारी में
बेचैनी से बदलती हैं करवटें
कि देखें क्या निकलता है पहले
गले की हड्डी
या आदमी का दम
- प्रीति अज्ञात
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