ऋण है हम पर
पंछियों, हवाओं और
तेज, तूफ़ानी बारिश का
जिन्होंने बीज-बीज छितराकर,
बहाकर
घने जंगल बसाए
और हमने उन्हें उखाड़
पत्थरों के कई शहर बना लिए
इधर हम विकसित लोग
अब तरसते हैं हवा-पानी को
उधर हताश पंछी भटक रहे
घोंसले की तलाश में
जंगली जंतुओं के शहर तक चले आने में
तुम्हें हैरत क्यों है भला?
प्रश्न यह है कि
अतिक्रमण, किसने किया है किस पर?
आह! देखती हूँ जब भी गगनचुम्बी इमारतें
मेरे भीतर एक जंगल अचानक
लहलहाकर गिर पड़ता है
- प्रीति 'अज्ञात'
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २ फरवरी २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत सुन्दर रचना प्रीती जी ..बधाई
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सार्थक
ReplyDeleteवाह!!!
Grateful for you writing this
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