Sunday, June 21, 2015

'अतुकांत कविता'

बेतुकी इक धुन 
काग़ज़ों में लिपटी उदासियाँ
गुमशुदा-से स्वप्न
लंबी इक डगर
सूना, अनजान सफ़र 
कुछ शब्द अन-उकरे
कुछ बादलों में संघनित भरे 
कुछ शुष्क हो, चरमराए
समय की चिलचिलाती धूप में
कुछ वाष्पित हो, 
ढूँढा किए अपने निशाँ
उसी गहरे कूप में 
वहीं ठिठककर रह गये
गिरते रहे लफ्ज़ बन
कुछ बीच राह ही ढह गये
और फिर भटके रास्ते
जुड़ा कोई कहीं
उम्मीद जब थी ही नहीं
शब्द,रिक्त-स्थान,शब्द
शब्द.....? शब्द.....??
क्रम टूटा, बिखरा,खो गया
बढ़ता रहा, तितर-बितर हो
नैराश्यता की ओर!

लय, राग-अनुराग से विमुख
गतिहीन जीवन, अलक्षित-सी सोच
समय से परे
यादों के अनियंत्रित ताबूत में
रोज़ ही एक गहरी कील
खोदती जाती भीतर तक
स्मृतियों का गहरा कुँआ
गोते लगाती, डूबती-उतराती
कृत्रिम-मुस्कान के आवरण तले
अपने होने का भरम बनाती
हारती-टूटती ज़िंदगी
और है भी क्या
एक 'अतुकांत कविता' के सिवा !
- प्रीति 'अज्ञात'

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