Tuesday, August 18, 2015

कवि



दिल के दो टुकड़े होते ही
नहीं फूटने लगती है
शब्दों की अविरल धारा
और न ही प्रेम के दो छंद 
लिखते ही बन सका कवि कोई
जियो एक कायरों-सी ज़िन्दगी चुपचाप 
मत करो प्रतिशोध किसी बात का 
घुटते रहो भीतर तक 
घसीटो हर पीड़ा 
जीवन के सुन्दर स्वप्न को 
तार-तार कर 
भिगोते रहो 
निरर्थक अहसासों की कलम से,
पुरानी डायरी के 
चुनिंदा वाहियात पन्ने 
फिर छुपा लो उन्हें 
दुनिया की नज़र से 
हाय! चोट न पहुंचे 
किसी के ह्रदय को

थक जाओगे जिस दिन 
सबको सँभालते हुए
उतार फेंकोगे 'महात्मा' का चोला 
खिसिया जाओगे अपनी ही 
निरर्थक परिभाषाओं से
चीखोगे-चिल्लाओगे
कहीं कोने में दुबककर 
थोड़े आँसू भी बहाओगे 

ठीक तब ही अचानक 
टूटेगा सब्र का बाँध  
खिंचेगी हर शिरा-धमनी 
छटपटायेंगी वर्षों से ज़ब्त 
आलसी माँस-पेशियाँ भीं 
भींचोगे मुट्ठी अपनी 
फेंक आओगे उठाकर 
दुनिया के सारे बेहूदा 
नियम-कानून 
भरेगा साहस रगों में 
और न होगा मृत्यु-भय कहीं 
एन उसी वक़्त 
चीखते हुए बाहर आएगा 
तुम्हारे अंदर का कवि 
© 2015 प्रीति 'अज्ञात'. सर्वाधिकार सुरक्षित

No comments:

Post a Comment