Sunday, June 21, 2015

यूँ ही .....

सोचती हूँ 
तुम मिलोगे 
तो ये कहूँगी 
वो कहूँगी 
लड़ूंगी घंटों 
शिकायतें करुँगी 
तुम सुनते रहोगे चुपचाप 
कुछ भी कहे बग़ैर 
और मेरे रुकते ही 
खी -खी कर बोल उठोगे 
हुँह , तो क्या हुआ !
और फिर .....
फिर मैं हंसने लगूँगी 
हम हंसने लगेंगें 
और उड़ने लगेंगे 
शिकायतों के पर 
पागल मन की 
बेवकूफियों के सबूतों को 
मिटाने की जल्दी में 
थमा देंगे अचानक ही
छुपाई हुई गिफ्ट 
एक दूसरे को 
ये कहते हुए 
लो, मरो 
थक गए, इसे संभाल-संभालकर 
पर अगली बार ऐसा किया न 
तो क़सम से 
चटनी ही बना दूंगी तेरी ! 
- प्रीति 'अज्ञात'

** एक मुलाक़ात, हर शिक़ायत को कैसे मौन कर देती है न ! पर उस मुलाक़ात तक शिक़वे -शिकायतों का दौर चलता ही रहता है ! है, न ! 




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