Sunday, July 5, 2015

तलाश....!

मैं देख रही होती हूँ
तुम्हारे शब्दों को
और इधर
चिथड़ा-चिथड़ा टूटकर
बिखर जाता है मन
पढ़ना चाहती हूँ उन्हें
उलट-पलटकर
इस उम्मीद से
कि कहीं कुछ तो ज़रूर होगा
मेरी ख़ातिर!

पर कितनी बार
हुई बेबस हर बात
खोते हुए अर्थ के साथ
हताश है अहसास
हर बार, हर शब्द
वही इशारा करता है
कि तुम चली क्यूँ नहीं जातीं!

हाँ, लगने लगा है
मुझे भी अब
कि ख़ुद को दूर ही रखना है बेहतर 
तुम्हारे लिए
तुमसे
दुनिया से
अपने-आप से
जुदा होकर
कैसे जियूंगी?
यह सवाल मेरा है
तो यक़ीनन
उत्तर भी मुझे ही
तलाशना होगा!
- प्रीति 'अज्ञात'

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