Tuesday, July 28, 2015

पढ़ना चाहोगे ?

'कविता' नहीं है मात्र
प्रेम और बिछोह की
स्वादिष्ट चटनी 
नोचना होता है इसमें 
हर गहरा घाव खसोटकर
कि रिसती रहे पीड़ा
और जीवित रहे भाव
जीनी होती है
एक मरी हुई ज़िंदगी दोबारा
खींचकर लाना होता है 
किसी कोने में दुबका, सहमता 
असहाय बचपन 
खोलना होता है 
जबरन भींचा गया मुँह 
करनी होती है निर्वस्त्र
उसकी हर पीड़ा !

आवश्यक है दिखाना, दुनिया को 
एक स्त्री की नीली पड़ी पीठ
और जाँघों से रिसता लहू 
खून के आंसू पीते हुए 
हंसना होता है 
लोगों के हर भद्दे मजाक पर
देखना होता है, कातर आँखों से 
अपने ही शहर के चौराहे पर 
मौत का भीषण तांडव 
और गलियों में 
टुकड़े-टुकड़े हो रहा धर्म 
इंसानों की शक़्ल में 
बर्फ होता शरीर या कि 
बेबस मानवता की लाश ?
अंतिम-संस्कार किसका है?
कौन तय करे ?

मारना चाहोगे न 
अब तो, एक करारा तमाचा 
अपने ही समाज के गाल पर!
हाँ, हँसेंगे कुछ कायर वहां 
तुम्हारे इस मूर्खतापूर्ण कृत्य पर 
तुम फिर सहलाते हुए 
अपनी ही झुकी पीठ को 
नम आँखों से 
मांगोगे मुक्ति 
फोड़ोगे सर दीवारों से
कि ख़त्म हो सके
हृदय की हर संवेदना 
और फिर न बन सके 
कवि कोई !

अभिव्यक्ति को
शब्द-संयोजन में गढ़कर 
परोस देना भर ही 
नहीं है 'कविता' 
मेरी समझ में
"यह एक नृशंस हत्या है 
कवि की 
रोज अपने ही हाथों!"
- प्रीति 'अज्ञात'
Pic : Preeti 'Agyaat'

2 comments:

  1. ऐसे नृशंश हत्या के सोच की जरुरत ही क्यों पड़ी ...........!!
    बेहतरीन भावाभिव्यक्ति !!

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  2. गहरी पीड़ा है इन शब्दों में .. समाज के मुंह पे तमाचा मारती हुयी रचना ...

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