रहता है यूँ तो मुझमें ही कहीं
पर आजकल तू, दिखता ही नहीं।
जिसकी चाहत में मर-मिटी दुनिया
वो 'काफ़िर' बाज़ार में, बिकता ही नहीं
तन्हाई में पलकों से गिरा देता है,
दुःख-दर्द अपने, लिखता ही नहीं।
ये कैसी मजबूरियाँ है इश्क़ की,
और गहराता है, मिटता ही नहीं।
और गहराता है, मिटता ही नहीं।
जमा बैठा है रगों में सहमा हुआ
लहू अब किसी का, रिसता ही नहीं
हक़ीक़त से रूबरू हुआ, मर गया,
ख़्वाब इन दिनों कोई, टिकता ही नहीं।
ख़्वाब इन दिनों कोई, टिकता ही नहीं।
प्रीति 'अज्ञात'
वाह रे इश्क और उसके बाद का दर्द ........... !! शब्द हैं आपके पास और उसको करीने से सजा दिया आपने :)
ReplyDeleteशुक्रिया, मुकेश जी :)
DeleteAwesome like it .....
ReplyDeleteThanks..
DeleteYe kaisi majburiyan hai ishqa ki, aur gaharaata hai mitataa hi nahi....
ReplyDelete:)
Deleteबहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
शुक्रिया !
Delete