Thursday, January 30, 2014

ग़ज़ल

रहता है यूँ तो मुझमें ही कहीं
पर आजकल तू, दिखता ही नहीं।

जिसकी चाहत में मर-मिटी दुनिया
वो 'काफ़िर' बाज़ार में, बिकता ही नहीं

तन्हाई में पलकों से गिरा देता है,
दुःख-दर्द अपने, लिखता ही नहीं।

ये कैसी मजबूरियाँ है इश्क़ की,
और गहराता है, मिटता ही नहीं।

जमा बैठा है रगों में सहमा हुआ
लहू अब किसी का, रिसता ही नहीं

हक़ीक़त से रूबरू हुआ, मर गया,
ख़्वाब इन दिनों कोई, टिकता ही नहीं।

प्रीति 'अज्ञात'

8 comments:

  1. वाह रे इश्क और उसके बाद का दर्द ........... !! शब्द हैं आपके पास और उसको करीने से सजा दिया आपने :)

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    1. शुक्रिया, मुकेश जी :)

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  2. Ye kaisi majburiyan hai ishqa ki, aur gaharaata hai mitataa hi nahi....

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  3. बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।

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