न आओ इधर, जख्म फिर से हरे होंगे
तुम्हारी मखमली राहों में,काँटे कितने गड़े होंगे.
है प्यासा राही, पानी जो तलाश करता है
कहो उसे, कि रास्ते में सिर्फ़ टूटे घड़े होंगे.
हर तरफ छाया ही पाओ, ये मुमकिन है कहाँ
कहीं तो शाख से, कुछ पत्ते भी झड़े होंगे.
संभल के चलना ,माँस के उन टुकड़ों से
इंसान बन, खुशी में तुम्हारी, जो अड़े होंगे.
आज तुम साथ हो, कल का सच तुम्हें क्या पता
तुम्हें तलाशने में, मुक़द्दर से कितना हम लड़े होंगे.
गमगीन रहने में, हर वक़्त, किसको मज़ा आता है
पर कुछ तो सोचकर ही विधाता ने, इन आँखों में आँसू जड़े होंगे.
प्रीति 'अज्ञात'
बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ हैं शुभकामनायें स्वीकार करें
ReplyDeleteधन्यवाद, संजय जी ! ब्लॉग की दुनिया में हम सभी पूरी तरह से अपरिचित हैं. ऐसे में आपका मेरे ब्लॉग पर आना और करीब 9-10 रचनाओं को पढ़कर, प्रतिक्रिया भी देना..सचमुच सुखद है ! बहुत-बहुत आभार आपका !
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