मैं कहीं हूँ ही नहीं,
न दिल में , न ख्यालों में
न बातों में, न जज़्बातों में
न दोष दूँगी तुझे तन्हाई का
मैं खुद ही कहाँ अपने साथ हूँ.
दर्द में जो अक़्सर बरसती हैं
बीते लम्हों को जो तरसती हैं
गिरा करती हैं अब बे-वजह भी
बस वही बे-मुरव्वत बरसात हूँ.
जमाने की चालों से डर गया
कोई कहीं जीते-जी मर गया
थामा होगा किसी मजबूरी में
छूटा हुआ वही अजनबी हाथ हूँ.
शुरू हुई थी जो मचलकर कभी
निकली है ज़ुबाँ से संभलकर अभी
जो तुम कहकर भी पूरी न कर सके
छटपटाती हुई वही अधूरी बात हूँ....
प्रीति 'अज्ञात'
न दिल में , न ख्यालों में
न बातों में, न जज़्बातों में
न दोष दूँगी तुझे तन्हाई का
मैं खुद ही कहाँ अपने साथ हूँ.
दर्द में जो अक़्सर बरसती हैं
बीते लम्हों को जो तरसती हैं
गिरा करती हैं अब बे-वजह भी
बस वही बे-मुरव्वत बरसात हूँ.
जमाने की चालों से डर गया
कोई कहीं जीते-जी मर गया
थामा होगा किसी मजबूरी में
छूटा हुआ वही अजनबी हाथ हूँ.
शुरू हुई थी जो मचलकर कभी
निकली है ज़ुबाँ से संभलकर अभी
जो तुम कहकर भी पूरी न कर सके
छटपटाती हुई वही अधूरी बात हूँ....
प्रीति 'अज्ञात'
वाह ! अति सुंदर ! मन मोह लिया इस रचना ने!
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया !
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