दिल की गहराइयों में उतरकर जो
बैठे थे कहीं,
आज उन शब्दों को हम अपनी
ज़ुबान देते हैं.
एक वो हैं, जो कह न सके
कुछ भी हमसे,
हर एक सवाल पे बस; फीकी
मुस्कान देते हैं.
करें अब क्या गिला, और कैसी
शिकायत उनसे,
वो तो बातों में हमें, ये दुनिया
भुला देते हैं.
है मिली,एक सी ज़मीं और
एक ही आसमाँ सबको,
ये तो हम पर है, कि हम किससे
क्या लेते हैं.
न हो हश्र; इस दिल का वो
पहले सा कहीं,
डर-डर के हम अपने, पंखों को
उड़ान देते हैं.
न जाने खुद से क्यूँ हारे हुए;
लगते हम हैं,
सपने भी आके अब, बेहद
थकान देते हैं.....
प्रीति 'अज्ञात'
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